20 April, 2013

#kahani140 उर्फ कथट्विट


     
तुमको पता चला रे, मेरी बीवी जींस पहनने लगी है. ठीक तो है, नार्मल लो न! गाँव वाले न यहाँ बहुत रहते हैं रे, लछमियेनगर में.
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माँ जवाब पाए बिना भी चिट्‍ठियाँ भेजती जातीँमैँ उनको पढ़े बगैर दराज मेँ रखता जाता. सवाल वही थेमेरे पास कहने को कुछ न था. 
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लड़का शादी मेँ दहेज नहीँ चाहता! ठीक से पता करोखानदान मेँ जरुर कोई ऎब है. 
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काका ने कहा- देख रहे होमहतो की बिटिया साइकिल दौड़ाती स्‍कूल भाग रही है और अपने बबुआ चादर तान कर सो रहे हैँ! 
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दीना सिँह चीख रहे हैँ- बेटा मेरा बिगड़ रहा हैमैँ संभालूँ या नहीँगाँव वालोँ को क्‍या मतलब! बुधनी रो रही है.
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पत्‍नी- काम के समय भागनारायणखाने के समय नमोनारायण! पति- तुमने क्‍या बात कही है,वाहवाह! सब्‍जी जरा और देना.
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घर के पीछे वाले कुएँ को मिट्‍टी से पाट दिया गया! क्‍योँजरुरत क्‍या थी?...तो रखकर ही क्‍या करना था कुएँ काभैयाआप पानी पीते?
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तुम मेरी कमर मेँ हाथ डाल कर नहीँ चलते! हाँ. क्‍योँक्‍या प्‍यार मेँ इजहार की नौटंकी जरुरी है?लेकिन वर्जित भी तो नहीँ!
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बेटारोज फोन पर कहते हो- माँअपना खयाल रखना.कभी बता भी दो कि बुढ़ापे मेँ अकेला आदमी अपना खयाल कैसे रखता है. मैँ अनपढ़ हूँ न!
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गाँव में नौजवान लोग इतना जोरशोर से चंदा वसूल रहा हैअष्टयाम के लिए! जेबखर्च की जरुरत भी तो धार्मिक बना देती है भाई.
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बाबूजी सुबक सुबक कर मां से कह रहे थे- पढ़ाना तो उलटा महंगा पड़ गया बेटी को. लायक वर का तो दहेज बहुते ज्यादा है! मैं चुप खड़ी थी. 
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तुम राह चलते बच्चों से खेलना छोड़ दो. क्योंबच्चों से खेलने में बुरा क्या हैकुछ नहींलेकिन उनके मां-बाप सहम जाते हैं.
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उसने हाथ पर हाथ रखानजर में नजर रख दी. आँखों से बूंदे गिरने लगींदिल उफनने लगा. दुख का पहाड़ नमक की तरह गलता रहा देर तक. 
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पापा कलम भेंट करतेहर जन्मदिन पर. बेटे ने जब लिखना शुरू कियापापा नहीं बचे पढ़ने के लिए. बेटे की कलम में दिलचस्पी नहीं रही. 
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झोर का पुल अंग्रेजोँ ने बनवाया थाटनाटन खड़ा है. पटना वाले गांधी सेतु का हाल देखो जरा,सुराज मेँ बना है!
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कभी मिलते हैँ. हाँ हाँमिलते हैँ न. हम कहते सुनते रहे एक दूसरे सेमिलना अभी बाकी है. कहते हैँदिल्‍ली ऎसे ही मिलवाती है.

#kahani140 प्रतियोगिता में 27 जनवरी 2013 के विजेता कथट्विट. जानकीपुल  पर प्रकाशित

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