तुमको पता चला रे, मेरी बीवी जींस पहनने लगी है. ठीक तो है, नार्मल लो न! गाँव वाले न यहाँ बहुत रहते हैं रे, लछमियेनगर में.*
माँ जवाब पाए बिना भी चिट्ठियाँ भेजती जातीँ, मैँ उनको पढ़े बगैर दराज मेँ रखता जाता. सवाल वही थे, मेरे पास कहने को कुछ न था.
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लड़का शादी मेँ दहेज नहीँ चाहता! ठीक से पता करो, खानदान मेँ जरुर कोई ऎब है.
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काका ने कहा- देख रहे हो, महतो की बिटिया साइकिल दौड़ाती स्कूल भाग रही है और अपने बबुआ चादर तान कर सो रहे हैँ!
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दीना सिँह चीख रहे हैँ- बेटा मेरा बिगड़ रहा है, मैँ संभालूँ या नहीँ, गाँव वालोँ को क्या मतलब! बुधनी रो रही है.
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पत्नी- काम के समय भागनारायण, खाने के समय नमोनारायण! पति- तुमने क्या बात कही है,वाह, वाह! सब्जी जरा और देना.
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घर के पीछे वाले कुएँ को मिट्टी से पाट दिया गया! क्योँ, जरुरत क्या थी?...तो रखकर ही क्या करना था कुएँ का, भैया? आप पानी पीते?
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तुम मेरी कमर मेँ हाथ डाल कर नहीँ चलते! हाँ. क्योँ? क्या प्यार मेँ इजहार की नौटंकी जरुरी है?लेकिन वर्जित भी तो नहीँ!
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बेटा, रोज फोन पर कहते हो- माँ, अपना खयाल रखना.कभी बता भी दो कि बुढ़ापे मेँ अकेला आदमी अपना खयाल कैसे रखता है. मैँ अनपढ़ हूँ न!*
गाँव में नौजवान लोग इतना जोरशोर से चंदा वसूल रहा है, अष्टयाम के लिए! जेबखर्च की जरुरत भी तो धार्मिक बना देती है भाई.
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बाबूजी सुबक सुबक कर मां से कह रहे थे- पढ़ाना तो उलटा महंगा पड़ गया बेटी को. लायक वर का तो दहेज बहुते ज्यादा है! मैं चुप खड़ी थी.
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तुम राह चलते बच्चों से खेलना छोड़ दो. क्यों, बच्चों से खेलने में बुरा क्या है? कुछ नहीं, लेकिन उनके मां-बाप सहम जाते हैं.
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उसने हाथ पर हाथ रखा, नजर में नजर रख दी. आँखों से बूंदे गिरने लगीं, दिल उफनने लगा. दुख का पहाड़ नमक की तरह गलता रहा देर तक.
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पापा कलम भेंट करते, हर जन्मदिन पर. बेटे ने जब लिखना शुरू किया, पापा नहीं बचे पढ़ने के लिए. बेटे की कलम में दिलचस्पी नहीं रही.
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झोर का पुल अंग्रेजोँ ने बनवाया था, टनाटन खड़ा है. पटना वाले गांधी सेतु का हाल देखो जरा,सुराज मेँ बना है!
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कभी मिलते हैँ. हाँ हाँ, मिलते हैँ न. हम कहते सुनते रहे एक दूसरे से, मिलना अभी बाकी है. कहते हैँ, दिल्ली ऎसे ही मिलवाती है.
#kahani140 प्रतियोगिता में 27 जनवरी 2013 के विजेता कथट्विट. जानकीपुल पर प्रकाशित