नेहरु
इंदिरा के स्याह सच के गवाह की किताब का खुलासा
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के दौरान तमाम बहसों में देश के
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का वह मशहूर कथन दुहराया जाता रहा कि भ्रष्टाचारियों
को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका कर फांसी दे देनी चाहिए. लेकिन घोटाले तो नेहरु
के प्रधानमंत्रीत्व काल में भी हुए थे. क्या किसी को मामूली सजा भी हुई? जीप
घोटाले और हरिदास मुंद्रा एलआईसी बीमा घोटाले में फंसे मंत्रियों के प्रति नेहरु
का व्यवहार कैसा रहा? एम ओ मथाई जैसे भ्रष्ट अधिकारी और धीरेन्द्र ब्रह्मचारी जैसे
भ्रष्टाचारी योगगुरु उनके परिवार के करीबी थे, उनके साथ उनका रवैया कैसा रहा?
डा. जनक
राज जय अपनी किताब स्ट्रोक्स ऑन ला एंड डेमोक्रेसी इन इंडिया: एन आई विटनेस में
जब इन सवालों से पर्दा हटाते हैं तब यह बात और पुख्ता ढंग से साबित होती है कि
सरकार में प्रधानमंत्री के निजी तौर पर ईमानदार होने का कोई खास मतलब नहीं होता,
केवल इतने भर से कोई सरकार बेदाग़ नहीं रह सकती. इस किताब से एक बात यह भी साफ़ होती
है कि अगर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू
से ही कठोर रवैया अपनाया होता तो यह विषबेल आज विकराल बरगद जैसी नहीं बनी होती.
उनके भावुक और नरम रवैये से उस समय न केवल भ्रष्टाचारियों को राहत मिली, बल्कि
उनकी लाडली बेटी इंदिरा, जो कि बाद में देश की शक्तिशाली प्रधानमंत्री बनी, को भी
गलत करने या गलत लोगों से घिरे रहने की शह मिली. जिसका खामियाजा यह हुआ कि
कांग्रेस तो दिन ब दिन भ्रष्ट राजनीतिक पार्टी होती ही गई, साथ में पूरी राजनीतिक
व्यवस्था और सरकारी तंत्र भ्रष्ट से भ्रष्टतम होता गया. उन्होंने हाल ही में छपी
अपनी किताब में विस्तार से यह भी बताया है कि आपातकाल के दौरान न्यायपालिका
किस हद तक विवश थी. देश के दो प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके डॉ. जनक ने
उनके व्यक्तित्व और उनकी ईमानदारी को करीब से जैसा देखा, वैसा लिखा है. पेश है कुछ खास अंश:
निजी तौर पर ईमानदार नेहरु
छोटी कार से संतुष्ट
प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरु को एक बड़ी कार मिली. उन्हें उसमें सवारी करने में संकोच हुआ. उन्होंने अपने प्रधान निजी सचिव के. राम को बुला कर कहा कि इस बड़ी कार को तुरत राष्ट्रपति भवन भेज दिया जाए और उनके लिए छोटी कार अम्बेसडर का इंतजाम किया जाए. के. राम ने उस कार को राष्ट्रपति भवन भेजने के बदले खुद इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. किसी तरह नेहरु जी तक यह बात पहुंची. उन्होंने के. राम को बुला कर कार के बारे में पूछा. भौंचक के. राम ने बस इतना कहा कि सर, उसे मैं इस्तेमाल कर रहा हूँ. नेहरु जी फ़ौरन फट पड़े, यह क्या बदतमीजी है, जल्दी से कार को राष्ट्रपति भवन भेज कर मुझे रिपोर्ट करो.
प्रधानमंत्री के कमरे में दो एयर कंडीशनर लगे थे. जवाहरलाल नेहरु ने के. राम को बुलाया और कहा कि ‘एक ठंडी मशीन मेरे कमरे से हटा दो और इसको मेरे आने से आधा घंटे पहले चालू किया करो’. के. राम ने कहे मुताबिक एक एयर कंडीशनर को वहां से हटवा लिया और अपने कमरे में लगवा लिया. नेहरु जी को जब यह बात मालूम हुई, उन्होंने के. राम को बुलाकर कहा कि मैंने एयर कंडीशनर अपने कमरे से बचत के लिए हटवाया था, इसलिए नहीं कि तुम अपने कमरे में लगवा लो.
अपनों से लाचार नेहरु
एम ओ मथाई की ढिठाई

एम ओ मथाई अपने आप
को दूसरा प्रधानमंत्री समझने लगा था और अपनी हरकतों से उसने प्रधानमंत्री नेहरु को
कई तरह से शर्मिन्दगी में डाला. उसने अपनी माँ के नाम पर बनाये अछमा ट्रस्ट के लिए
बहुत बड़ी रकम जुटाई. इसकी एक ट्रस्टी तब की स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर
थीं जो मथाई की काफी करीबी मानी जाती थीं. संसद में सवाल उठा, जिसमें मथाई पर यह
दोषारोपण किया गया कि उसने अपनी स्थिति का फायदा उठा कर भ्रष्ट तरीके से ट्रस्ट के
लिए पैसे इकट्ठे किये हैं. इसके बावजूद नेहरु अपनी तरफ से उससे इस्तीफा नहीं मांग
सके. हालाँकि कई रोज के हल्लेगुल्ले के बाद अंतत: उसे जाना पड़ा, और जब उसने प्रधानमंत्री को अपने इस्तीफा देने
के बारे में बताया तब उन्होंने कहा कि तुमने यह सही काम किया.
जांच समिति के
अध्यक्ष ए. के. चंदा ने जब मथाई से कहा कि वह यह बताये कि प्रधानमंत्री से जुड़ने
से पहले उसके पास कितने पैसे थे, तब वह साफ़ साफ़ कुछ नहीं बता सका. लेकिन नेहरु जी
ने कहा कि मुझे कुछ कुछ याद है कि मथाई के पास लगभग इतनी जमा राशि थी. तब
वितमंत्री मोरारजी देसाई ने अपने नोट में लिखा कि अगर प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि
उन्हें याद है कि मथाई के पास कितना पैसा था तो उन पर यकीन न करने का कोई कारण
नहीं है. इस तरह से नेहरु जी ने मथाई को बचाने का भरसक प्रयास भी किया. फिर भी बाद
में उसने उन पर और इंदिरा पर कीचड़ उछालते हुए दो किताबें लिखीं.
टीटी कृष्णमाचारी को नेहरु की विदाई
मुंद्रा घोटाले में तत्कालीन वितमंत्री टीटी कृष्णमचारी का
नाम आया. एकसदस्यीय जस्टिस छागला कमिटी जांच कर रही थी. उसी दौरान नेहरु जी मुंबई
में अपने एक भाषण में उनकी तारीफ कर आये. जस्टिस एम. सी. छागला नाराज हुए और
आपत्ति जताई कि जब मैं घोटाले में टीटी कृष्णमाचारी की संलिप्तता की जांच कर रहा
हूँ तब प्रधानमंत्री द्वारा उनकी सार्वजनिक तारीफ करने का क्या मतलब है. नेहरु ने
अपने इस किये पर अफ़सोस जताया. लेकिन उन्होंने कृष्णमाचारी को बचाने के लिए सभी
उपाय भी किये. एमसी छागला की जांच के बाद जब कृष्णमाचारी को मंत्री पद छोड़ कर जाना
ही पड़ा, तब वे उनको विदा करने खुद एअरपोर्ट गए. निजी संबंधों का उनका यह भावुक
प्रदर्शन भ्रष्टाचारियों को भयभीत करने वाला तो नहीं ही था.
स्वामी
के हित में इंदिरा का हठयोग
स्वामी धीरेन्द्र
ब्रह्मचारी नेहरु परिवार से कैसे जुड़े, यह मुझे नहीं मालूम. लेकिन वे प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरु के लिए शर्मिन्दगी और परिवार की प्रतिष्ठा के लिए घातक जरुर साबित
हुए. वे प्रधानमंत्री निवास पर अक्सर आने वालों में से थे. बाद में उन्होंने
इंदिरा गाँधी को योग सिखाना शुरू किया. उन्हें इंदिरा जी से मिलने के लिए पहले से
समय तय नहीं करना होता था. उन्होंने इंदिरा जी से कई तरह के फायदे भी उठाये. तत्कालीन
केन्द्रीय आवास मंत्री मेहरचंद खन्ना ने सरकारी बंगले से जब स्वामी को निकाल दिया
तब इंदिरा जी ने उन्हें पत्र लिखा कि स्वामी को सरकारी बंगले से न निकाला जाए.
मुझे याद है कि मेहरचंद खन्ना ने इंदिरा गाँधी को वापस पत्र लिखा कि यह मामला आपके
अधिकार क्षेत्र में नहीं है और अगर आप फिर भी हर हाल में स्वामी की मदद करना चाहती
हैं तो अपने पिता जवाहरलाल से कहिये कि वे मुझे इस बात के लिए लिखें.
डा. के.एल. श्रीमाली
तब शिक्षा मंत्री थे और स्वामी अपनी किसी परियोजना के लिए एक और साल का अनुदान
चाहते थे. डा. श्रीमाली ने उनसे कहा कि वे पिछले साल के अनुदान की ऑडिट रिपोर्ट जमा
कराएं. लेकिन स्वामी ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने इंदिरा गाँधी से जाकर कहा कि
शिक्षा मंत्री ने इस साल के लिए उन्हें अनुदान देने से मना कर दिया है. इस पर
इंदिरा गाँधी ने डा. श्रीमाली को लिखा कि वे स्वामी को अनुदान दें. डा श्रीमाली ने
इंदिरा गाँधी को जवाब में लिखा कि बेहतर हो कि आप स्वामी को पिछले साल के अनुदान की
ऑडिट रिपोर्ट जमा कराने की सलाह दें. इसके बगैर उन्हें अगला अनुदान नहीं मिल सकता.
इंदिरा गाँधी ने इसको अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया और अपने ‘पापू’ नेहरु जी से
उनकी शिकायत की. इस पर नेहरु जी ने भी ऑडिट रिपोर्ट जमा कराने की ही बात कही.
लेकिन इंदिरा जी उनके पीछे पड़ी रहीं कि बगैर किसी ऑडिट रिपोर्ट के स्वामी को अनुदान
मिल जाए. नेहरु जी थोड़े खीजे भी, बल्कि एक रोज यह भी कहा कि ‘क्या मैं उसको (डा
श्रीमाली को) खिड़की से बाहर फेंक दूं?’
लेकिन इंदिरा तो
जैसे स्वामी की मदद के लिए पागल थीं. उन्होंने आखिरकार डा श्रीमाली को शिक्षा
मंत्रालय से हटवा कर ही दम लिया. और डा श्रीमाली के बाद जब एम. सी. छागला ने शिक्षा
मंत्रालय का जिम्मा संभाला तो इंदिरा गाँधी ने उनको अनुरोध कर के तीन चार दिन के
लिए प्रधानमंत्री आवास में ही रखा. उनके कपडे भी वहीं सिलवाए. और उसी दौरान शिक्षा
सचिव मि. कृपाल से स्वामी की फ़ाइल घर पर मंगवा कर उस पर नए शिक्षा मंत्री के
दस्तखत करवा कर ही दम लिया. इस तरह की चालबाजी को देखना मेरे लिए तब असह्य था.
लेकिन एक समय ऐसा भी
आया जब इंदिरा गाँधी स्वामी से छुटकारा चाहने लगीं, वह उनके लिए अक्सर शर्मिन्दगी
का कारण बनने लगा था. और आखिर उन्होंने एक दिन मुझे एक नोट भेजा, स्वामी को रफा
दफा करने के लिए. मैंने वह नोट यशपाल कपूर को दिखाया. उसका स्वामी के प्रति झुकाव
था. उसने मुझे कुछ भी ऐसा करने से मना कर दिया. बाद में उसने दक्षिण दिल्ली में
स्वामी के रहने का इंतजाम किया. इंदिरा गाँधी की मर्जी के खिलाफ यह सब होना मुझे
सही नहीं लगा. लेकिन यशपाल कपूर मेरा सहकर्मी और करीबी मित्र था, इसलिए मैं चुप ही
रहा. मैंने कपूर से कहा कि वह गलत कर रहा है, लेकिन स्वामी को बचने में उसका निजी
स्वार्थ था. स्वामी के यहाँ उसकी शामें अच्छी कटती थीं. बाद में स्वामी फिर से
नेहरु परिवार के करीब आया संजय गाँधी से जुड कर. मुझे तो यही लगता है कि अगर यशपाल
कपूर ने तब स्वामी को नहीं बचाया होता तो वह उसी समय समाप्त हो जाता और शायद संजय
गाँधी को मृत्यु के क्रूर पंजे से बचाया
जा सकता था.
जब धवन
ने दी मुझे कमीज-पैंट
चीन के साथ हुए
युद्ध के बाद प्रधानमंत्री नेहरु की पहल पर केंद्र सरकार की तरफ से सिटिजन’स
सेन्ट्रल काउन्सिल का गठन हुआ, जिसकी चेयरमैन श्रीमती इंदिरा गाँधी बनाई गईं. यह
कैबिनेट मंत्री के दरजे का ओहदा था. इस काउन्सिल के जेनेरल सेक्रेटरी राजा दिनेश
सिंह और द्वारका प्रसाद मिश्र बनाए गए. राष्ट्रपति भवन के कुछ कमरों में इस
काउन्सिल का कार्यालय शुरू हुआ. इंदिरा जी के सहायक के बतौर मुझे नियुक्त किया
गया. इंदिरा जी एक और संस्था की चेयरमैन थीं और वहां की जिम्मेदारियों के लिए उषा
भगत इंदिरा जी की निजी सचिव थीं. आर. के. धवन तब उषा भगत से संबद्ध थे और इंदिरा
जी के विश्वासपात्र थे. काउन्सिल देशवासियों से सेना और सेना के परिवारजनों की मदद
के लिए सहायता सामग्री जुटा रही थी. लोग
कपड़े, रुपये, खाने के सामान तो भेज ही रहे थे, सोने के जेवरात तक सैनिकों की
सहायता के लिए दे रहे थे. स्टोर रूम प्रधानमंत्री आवास में बनाया गया था. स्टेट
बैंक ने वहीं अपनी एक शाखा भी खोल दी थी, जिसमें एक लॉकर का इंतजाम था.
पंजाब के तत्कालीन
मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों पंजाब से एक रात ढेर सारा सोना लेकर प्रधानमंत्री
आवास में बने लॉकर में जमा कराने आ गए. नेहरु जी ने उनसे पूछा कि इतने सोने की कोई
फेहरिश्त है, प्रताप सिंह कैरों चुप. उनके साथ कोई मि. कपूर नाम का स्टाफ आया था.
उसने एक नकली फेहरिश्त तैयार की और मुझसे कहा कि इस पर दस्तखत कर दो. मैंने मना कर
दिया, लेकिन धवन ने तुरत दस्तखत कर दिए.
व्यवस्था तो बहुत
सूझबूझ के साथ बनी थी, लेकिन यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था कि लोगों ने सैनिकों और
उनके परिवारजनों के लिए जो सामान सहायता कोष में भेजा था, उनमें से कुछ गायब कर दी
गईं. कोशिश करने पर भी मुझे इस बारे में मालूम नहीं चल पा रहा था कि इसके पीछ कौन
है. एक रोज मैं प्रधानमंत्री के निजी सचिव के. राम के कमरे में बैठा था कि आर के धवन
आया और उसने छः कमीज और पैंट मुझे देकर घर ले जाने के लिए कहा. उसे झिडकते हुए
मैंने कहा कि इन्हें स्टोर में वापस रख दो. तब मैंने बात को कुछ कुछ समझा.
लेह में जवानों के लिए सामान से भरा हवाई जहाज जब उतरा तो उसमें से
सिर्फ कूड़ा कचरा निकला. इस बात को मैंने इंदिरा गाँधी के सामने रखा. उन्होंने धवन
से पूछा. धवन के पास कोई जवाब नहीं था. इससे पहले भी मैं ऐसी बातें उनके ध्यान में
लाता रहा था, जिसके जवाब में वे यही कहती थीं कि उन्हें सब कुछ पता है और ऐसे नोट मैं उन्हें न लिखा
करूँ. अंत में मैंने उनको कहा कि मुझे स्टोर के निरिक्षण काम से मुक्ति दे दें.
भ्रष्टाचार पर निर्णायक भूमिका नहीं निभा सके नेहरु
चीनी
हमले के बाद कृष्ण मेनन को सभी ने हार के लिए जिम्मेदार ठहराया. लेकिन
प्रधानमंत्री नेहरु उनसे इस्तीफा नहीं मांग पाए. हालाँकि चारों तरफ से दबाव बनने
पर मेनन को किसी तरह जाना ही पड़ा. फिर भी जवाहर लाल नेहरु की नरमी ने गलत सन्देश
दिया.
मुंद्रा
घोटाले में तत्कालीन वितमंत्री टीटी कृष्णमचारी का नाम आने के बाद उनसे
प्रधानमंत्री नेहरु ने इस्तीफा नहीं
माँगा, बल्कि उनकी सार्वजनिक तारीफ की और आरोप साबित होने पर जब कृष्णमाचारी
मंत्री पद छोड़ कर दिल्ली से अपने गृहराज्य जा रहे थे, तब उनको विदा करने खुद
एअरपोर्ट गए. निजी संबंधों का उनका यह भावुक प्रदर्शन भ्रष्टाचारियों को भयभीत
करने वाला तो नहीं ही था.
अपनी बेटी के कहने पर प्रधानमंत्री नेहरु ने ईमानदार और कर्मठ व्यक्ति डा. के. एल. श्रीमाली को शिक्षा मंत्री के पद से हटाया और इस तरह धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के लिए गलत तरीके
से अनुदान स्वीकृति का रास्ता साफ़ किया.
आखिर कौन हैं डॉ. जनक राज जय?
फोटो सौजन्य: दिल्ली प्रेस |
81वर्षीय डॉ. जनक राज जय ने अपने कैरियर की शुरुआत 1956 में प्रधानमंत्री कार्यालय में बतौर उनके निजी स्टाफ शुरू
किया था. भारत चीन युद्ध के दौरान युद्धरत भारतीय सैनिकों और उनके परिवार को मदद
पहुँचाने के उद्देश्य से जब भारत सरकार ने सिटिजन’स सेन्ट्रल काउन्सिल का गठन
किया, तब डा जनक काउन्सिल की चेयरमैन श्रीमती इंदिरा गाँधी के निजी सहायक बनाये
गए. उसके बाद वे उनके साथ ही जुड़े रहे और 1969 में सरकारी
नौकरी से इस्तीफा देकर वकालत के पेशे में चले गए. लेकिन तब भी उनका गाँधी परिवार
और कॉंग्रेस से संबंध खत्म नहीं हुआ. आपातकाल लागू होने की घोषणा के बाद जब डा जनक राज जय
ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को एक पत्र लिख कर उनके इस कदम की आलोचना की और इसके
नतीजों को सामने रखा तब इंदिरा गाँधी ने फ़ौरन उनको गिरफ्तार करने का आदेश जारी
किया. पूरे आपातकाल के दौरान तिहाड जेल में बंद रहे डा जनक के पास जेल में बंद
राजनीतिक कैदियों की गतिविधियों की खबर सरकार को देने का प्रस्ताव भी भिजवाया गया
था, जिसके एवज में उनको वहाँ तमाम सहूलियतें देने और उनके परिवार की सुरक्षा का
वादा किया गया था. लेकिन डा जनक इस समझौते के लिए राजी न हुए. तीस से ज्यादा
किताबों के लेखक डा जनक भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के भी सहयोगी
बने, जब कांग्रेस से निकाले जाने के बाद उन्होंने जनमोर्चा नाम से अलग पार्टी का
गठन किया. फिलहाल इंडियन ला इंस्टीट्यूट की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य हैं.
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