11 January, 2013

पता नहीं किसको मिलते हैं ये पुरस्कार: कुसुम अंसल

कुसुमांजलि फाउन्डेशन ने हर साल दो कृतियों को ‘कुसुमांजलि साहित्य सम्मान’ देने की शुरुआत की है. दो में से एक कृति का चुनाव हिंदी भाषा से हुआ करेगा और दूसरे का किसी अन्य भारतीय भाषा से. फाउन्डेशन सम्मानस्वरूप ढाई ढाई लाख रूपये की राशि दे रहा है. वर्ष 2012 के लिए हिंदी से उषाकिरण खान के उपन्यास ‘सिरजनहार’ को और तमिल से के. विट्टल के साहित्यिक संस्मरण ‘वाजविन सिला उन्नाडंगल’ को  सम्मान के लिए चुना गया था. कुसुमांजलि फाउन्डेशन अंसल ए.पी.आई. द्वारा समर्थित है और ‘कुसुमांजलि साहित्य सम्मान’ अंसल ए.पी.आई. की डाइरेक्टर और कुसुमांजलि फाउन्डेशन की अध्यक्ष डा. कुसुम अंसल की महत्वाकांक्षी योजना है. डा कुसुम अंसल हिंदी की प्रतिष्ठित लेखिका हैं. कविता, कहानी, आत्मकथा, पटकथा लेखन, धारावाहिक लेखन जैसी विधाओं में सिद्धहस्त कुसुम जी अपने कथा साहित्य के कारण ज्यादा जानी जाती हैं. उनके उपन्यास ‘एक और पंचवटी’ पर बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में  1985 में फिल्म बन चुकी है. एक और उपन्यास ‘रेखाकृति’ की भी नाट्य प्रस्तुति हुई है. कई पुरस्कारों से सम्मानित डा कुसुम के लेखकीय जीवन का सफर बहुत आसान नहीं रहा है. फिर भी उन्होंने परिवार की देखभाल और अपने लेखन के बीच हमेशा संतुलन कायम रखा है. दिल्ली प्रेस के अपने कार्यकाल में 'गृहशोभा' पत्रिका के लिए  उनके लेखकीय जीवन और सम्मान योजना के बारे में उनसे  मेरी लम्बी बातचीत  हुई थी, जिसका  कुछ अंश वहां प्रकाशित हुआ था. साभार पूरी बातचीत यहाँ  दे रहा हूँ: 


आपका जन्म अलीगढ के जिस समृद्ध परिवार में हुआ, वहाँ कानून की पढ़ाई का चलन था. आपने मनोविज्ञान जैसे विषय में एम. ए. की पढाई की, और साहित्य रचना के क्षेत्र में सक्रिय हो गईं. लेखन की तरफ रुझान कैसे हुआ?
अलीगढ में उस जमाने में, अभी तो बदल गया है, बहुत सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे और वहाँ की एक अलग सी संस्कृति थी. मेरे घर में एजुकेशन को बहुत महत्व दिया जाता था. दादा लन्दन से बैरिस्टरी की पढ़ाई करके आये थे, पिताजी ने इलाहाबाद से वकालत की पढ़ाई की थी. मेरे पिता को साहित्य और संगीत से बहुत लगाव था. हमारे घर में बहुत सी पत्रिकाएं आती थीं और बहुत बड़ा पुस्तकालय था. अलीगढ तब बहुत छोटा सा शहर था, चार-छः लोग ही बड़े हुआ करते थे उस समय वहाँ. उसमें मेरे पिता का खास स्थान था. शहर में या अलीगढ यूनिवर्सिटी में जितने भी बड़े साहित्यकार उस वक्त आया करते थे, सब मेरे घर में ठहरते थे. क्योंकि उस जमाने में अलीगढ में होटल नहीं थे. मेरे पिता हर साल चार दिन की एक नुमाइश आयोजित करते थे, जिसमें कवि सम्मलेन होता था,  मुशायरा  होता था, और दो दिन संगीत और नाटक होते थे. जितने संगीतकार और कवि होते थे, वे सब एक दिन हमारे घर में भी परफार्म करते थे. मैने बच्चन जी की ‘मधुशाला’, भवानी प्रसाद मिश्र की ‘मैं गीत बेचता हूँ’ और पन्त जी की कविताएं, साथ में तलत महमूद की गजलें अपने ड्राइंग रूम में सुनीं. इस्मत चुगतई तो अलीगढ की ही थीं. उनका हमारे घर में आनाजाना था. उस समय मुझे नहीं मालूम था कि आगे जाकर ये बड़ी साहित्यकार बनेंगी. मुझे लगाव था इन सब लोगों से. तो उनको देख कर मैं थोड़ा बहुत लिखती थी. कालेज और यूनिवर्सिटी की पत्रिकाओं में मेरी कहानियाँ छपीं. कुछ कविताएं भी लिखीं तब, उसी ज़माने में मैने दो उपन्यास लिखे थे जो बाद में छपे.

कालेज के दिनों का लिखा पहला उपन्यास कौन सा है आपका?
मैने जो नाम दिया था उसे, वह अब याद भी नहीं. छपते समय उसका नाम बदल कर ‘उदास आँखें’ हो गया. यह आई ट्रांसप्लांट पर आधारित उपन्यास है. जब लिखा था, तब यह बड़ा और अच्छा इश्यू था. बाद में इस विषय पर एक फिल्म भी बनी. वो मेरे उपन्यास पर आधारित नहीं थी. एक दूसरा उपन्यास था ‘नींव का पत्थर’. वो भी लिखा कालेज के जमाने में ही, लेकिन छपवाया बाद में. तब अपने लिखने को कभी भी मैंने सीरियसली लिया नहीं.

लिखने की इस लत की वजह से ही क्या आपने मनोविज्ञान में एम.ए. करने के बावजूद हिंदी साहित्य में पी-एच. डी. किया?
नहीं, पी-एच.डी. तो मैंने बाद में किया. 1987 में, पंजाब यूनिवर्सिटी से, अपनी बेटी की शादी के बाद. एम.ए. 1961 में किया था, अलीगढ यूनिवर्सिटी से. बीच में पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से एक लंबा फासला रहा.

तो क्या लिखने की निरंतरता शादी के बाद भी कायम रही थी?
नहीं. 1962 में मेरी शादी हुई. शादी के बाद तीन बच्चे हो गए दस साल के अंदर. (हँसते हुए)  तीन तीन बच्चों की बहुत जिम्मेदारियां होती हैं. हमलोग सेल्फमेड आदमी हैं. तब इतनी आर्थिक सुविधाएं नहीं थीं. घर का बहुत सारा काम करना पड़ता था. बच्चों को संभालना पड़ता था, बच्चों को पालना इतना आसान नहीं था. तो 12-14 साल तक तो कुछ नहीं किया, सिवाय इसके कि अपने बच्चों को बड़ा किया. 

पत्नी और माँ की भूमिका में सिमट चुकी लेखिका ने फिर से खुद को हासिल कैसे किया?
एक अच्छी सी घटना हुई, जब बच्चे छोटे थे मेरे. मेरी मित्र अलीगढ की थीं, आती रहती थीं वो. उन्होंने  कहा कि तुम अपनी जिंदगी क्या खराब कर रही हो, बच्चे पाल रही हो बस. तुम्हें कुछ और भी करना चाहिए. चलो, एक नाटक हो रहा है, हमलोग नाटक में काम करते हैं. मैंने कहा कि अरे, मुझे कौन लेगा प्ले में? मैं ३ बच्चों की माँ हूँ, पेट इतना बढ़ा हुआ है. लेकिन उस दिन इप्टा में गए हमलोग. वहाँ उन्होंने मुझे ऐसे लिया जैसे मैं उनकी पुरानी मेंबर हूँ. एक तो मुझे उनका एटीट्यूड बहुत ही अच्छा लगा और उसके अलावा वहाँ का वातावरण इतना अच्छा था कि मुझे लगा कि मैं तो इस वातावरण का हिस्सा हूँ. मैं जहाँ रहती हूँ वो मेरा जीवन नहीं है. मैं यह बात बहुत दुहराती हूँ कि मुझे लगता था कि मेरा जीवन वो है और जहाँ रहती हूँ वो नाटक है. वहां हमलोगों ने एक साल तक ग़ालिब की २-३ सीरीज की. ग़ालिब मेरे बहुत प्रिय शायर थे और मैंने ‘ग़ालिब के उड़ते पुर्जे’ नाटक में अभिनय किया. अजीत कुरैशी उसके निर्देशक थे, अभी हाल ही में उन्होंने हम सभी पुराने कलाकारों को बुलाकर सम्मानित किया था. वहाँ दिन रात काम करते हुए मुझे लगा कि वहाँ कोई शायर था तो कोई पत्रकार और कोई नाटककार. उनके साथ एक साल उठना बैठना हुआ तो किसी ने पूछा कि आप लिखती थीं तो छपवाया क्यों नहीं? तब मुझे लगा कि मैंने कभी इस बात पर सोचा ही नहीं. फिर मैंने विचार किया और अपने सारे पुराने कागज़ निकाले. ‘उदास आँखें’ उपन्यास का पुनर्लेखन किया, वह छपा, फिर ‘नींव का पत्थर’ भी छपा. उसके बाद मैंने नया उपन्यास ‘एक और पंचवटी’ लिखा.

तो 1974 के बाद जो आपका लेखकीय जीवन फिर शुरू हुआ, उसमें लिखा गया पहला उपन्यास ‘एक और पंचवटी’ था. यह तो आपका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास भी है?
हाँ, सही है. एक और बात है. पहले जो दोनों उपन्यास छपे, वो पॉकेट एडिशन में थे. तब मुझे पता नहीं था कि पॉकेट एडिशन को साहित्यिक नहीं माना जाता. लेकिन ‘एक और पंचवटी’ हार्ड बाउंड में छपा 76-77 में. यह लोगों को इतना पसंद आया कि कई भाषाओं में अनूदित हो गया. बासु भट्टाचार्य ने इस पर फिल्म भी बनाई, मैंने उसमें स्क्रिप्ट भी लिखा.

चूँकि शादी से पहले पढ़ने लिखने, साहित्य-संस्कृति की दुनिया में आपकी सक्रिय भागीदारी थी, ऐसे में 13 साल तक बिलकुल उससे आप कटी रही, आपका क्या अनुभव रहा?
उस दौरान की मेरी घुटन मेरी बहुत सारी कहानियों में आई है. अभी हाल ही में मैं अपनी पुरानी कहानियों को देख रही थी. दोबारा पढ़ते हुए ध्यान गया कि उनमें से कई कहानियों में आया है कि घर के काम इतने होते थे कि कविता-कहानी की अपनी किताबों को आलमारी में बंद रखना पड़ता था, क्योंकि पढ़ने का समय ही नहीं था. जैसा कि मैंने बताया ही, मेरे शुरूआती वैवाहिक जीवन में आर्थिक अभाव भी बहुत था. काम बहुत करना होता था, इसलिए थक कर सो जाती थी. जब मैंने नए सिरे से लगातार लिखना शुरू किया तो लगा कि इतने दिनों से मुझे साहित्य के बारे में कुछ पता नहीं है. फिर एक दिन मैं किताबों की एक दूकान में गई और वहां से शिवानी का उपन्यास ‘कृष्णकली’ खरीद कर ले आई. पढ़ा. तब शिवानी को पहली बार पढ़ा था. मुझे वह उपन्यास इतना पसंद आया कि लगा, पता नहीं मैं कौन सी दुनिया में रह रही हूँ. लोग इतना सुन्दर लिख रहे हैं और मैंने पढ़ा ही नहीं. फिर मैंने उनकी सारी किताबें मंगा कर पढ़ीं. हिंदी पाठकों के साथ एक असुविधा तो यह भी है न कि हिंदी की किताबें मिलती नहीं हैं आसानी से. खैर, ‘एक और पंचवटी’ के बाद तो मैंने मुडकर देखा ही नहीं.

पहला कुसुमांजलि सम्मान उषाकिरण खान को देते हुए डा. कर्ण 
सिंह. तस्वीर में बायीं तरफ खड़ी हैं कुसुमांजलि फाउन्डेशन की 
अध्यक्ष डा. कुसुम अंसल 
एपीआई अंसल ग्रुप ने अभी हाल ही में ढाई ढाई लाख रूपये के दो सालाना पुरस्कार ‘कुसुमांजली सम्मान’ नाम से शुरू किये हैं. लेकिन अभी जैसा कि आपने कहा कि हिंदी किताबें खरीदने के लिए भी आसानी से मिलती नहीं हैं, और आप एपीआई अंसल ग्रुप की डाइरेक्टर भी हैं, तो आपने पुरस्कार शुरू करने के बदले इस अभाव की पूर्ति की दिशा में कोई ठोस पहलकदमी क्यों नहीं की? क्योंकि हिंदी और भारतीय भाषाओं के लेखन के लिए पुरस्कार तो कई कई हैं, लेकिन हिंदीपट्टी में लेखकों और पाठकों के हित में अगर कुछ नहीं है तो वह है पुस्तक का बिक्री तंत्र.   
बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप. यह मेरा निजी अनुभव भी है कि किताबें मिलती नहीं हैं, लेकिन इसके लिए पूरा मार्केटिंग प्लान तो मैं नहीं कर सकती. हाँ, मुझे जो बात सबसे ज्यादा अखरती थी, वह यह कि और लेखकों से कैसे मिलूं, यहाँ कोई जगह तो है नहीं दिल्ली में. न पहले थी, न अब है. थोड़ा सा माहौल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में है, लेकिन वहां आपको लोगों को इनवाईट करना पड़ता है. ऐसे में मुझे लगता था कि साहित्य अकादमी वालों को चाहिए कि अपने कैम्पस में कॉफी शॉप बना दें. वहाँ पर जाकर हम मिल बैठ सकते हैं, बात कर सकते हैं. यह आतीजाती जगह पर है तो एक अच्छा साहित्यिक अड्डा बन सकता है. लेकिन खैर, मैंने अपनी एक दोस्त सरोज वशिष्ठ के साथ मिलकर एक छोटा प्रयास यह शुरू किया कि किसी किसी के घर कुछ लेखक जुट गए, कोई कहानी पढ़ रहा है, कोई कविता पढ़ रहा है. 1994 से यह हमने शुरू किया ‘संवाद’ नाम से. अभी यह अंसल भवन में ही मासिक तौर पर हो रहा है.


वैसे हाल के वर्षों में साहित्यिक सरगर्मियां तो बढ़ी हैं. कई तरह के आयोजन शुरू हुए हैं, जिनमें आम आदमी की भागीदारी बढ़ी है. इससे हिंदी लेखन को भी तो फायदा होगा ही?
आजकल लिटरेरी फेस्टिवल को जिस तरह हाईलाईट किया जा रहा है, सब जगह तो विदेशी साहित्य की बात होती है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जितने भी लोग आते हैं, उनमें से आधे लोगों को तो लिटरेचर का ‘एल’ भी नहीं आता. वो सब तमाशबीन होते हैं, फैशनपरस्त लोग होते हैं. जो गंभीर श्रोता होते हैं, उनको तो जगह ही नहीं मिलती बैठने की. मैं गई थी वहां, देखा है. लेकिन हिंदी के सेशन कहाँ होते हैं वहां, कुछ लेखक घूमते दिखाई दे जाते हैं. मैंने एक बात गौर की वहां. अंग्रेजी लेखकों के अपने लिटरेरी एजेंट थे. इनकी ड्यूटी ये होती है कि ये अपने लेखक की किताब को अच्छे से अच्छे पब्लिशिंग हाउस से छपवाते हैं. लेखक और उसकी किताबों की पब्लिसिटी का पूरा इंतजाम देखते हैं. किताब की बिक्री से लेकर लेखक के हर फायदे की देखभाल करते हैं, ऐसा हिंदी में नहीं है. अंग्रेजी लेखकों को जिस तरह से प्रचार प्रसार मिलता है, हिंदी के लेखकों को कहाँ मिलता है? हिंदी के प्रकाशक तो कुछ नहीं करते हैं लेखकों के लिए. वे किताबें छापते हैं, कितनी प्रतियां छापते हैं, लेखक को यह भी नहीं पता रहता. लेखकों से पूछकर देख कर देख लीजिए. किताब कितनी बिकी, यह भी नहीं मालूम चलता. बस, 2000-1500 रुपये का चेक आ जाता है ऐसे ही साल में. जो लिखने के सहारे जीवनयापन करना चाहते हैं, वो नहीं कर सकते. पूरा माहौल कैसा है, सभी जानते हैं. मैं अंग्रेजी में भी लिखती हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी का पलड़ा अभी भी बहुत भारी है. इसमें इतना समृद्ध साहित्य है, जिसको हमारी नई पीढ़ी नहीं जान पाएगी. वह जिस चकाचौंध में फंस रही है, उसमें स्वप्न, निजता, रुमानियत सब लुप्त हो रहे हैं धीरे धीरे. मेरी दिलचस्पी इसमें है कि साहित्य को, खास तौर पर हिंदी साहित्य को पढ़ा जाए.

‘कुसुमांजलि साहित्य सम्मान’ शुरू करने का वास्तविक उद्देश्य क्या है?
हिंदी लेखकों के लिए कोई पुरस्कार तो है नहीं खास. जो हैं, उनकी अपनी पॉलिटिक्स है. मुझे लगा कि मैं कोई ऐसा पुरस्कार शुरू करूँ जिसमें लेखक का सही मूल्यांकन हो.

साहित्य अकादमी और हिंदी अकादमियां हर साल पुरस्कार देती तो हैं हिंदी लेखकों को?
पता नहीं किसको मिलते हैं ये पुरस्कार.

लेखन की दुनिया में स्थापित होने के लिए स्त्री या पुरुष होने से क्या कोई फर्क पड़ता है? क्या स्त्री को संघर्ष ज्यादा करना पड़ता है?
नहीं. संघर्ष तो पुरुष को भी करना पड़ता होगा. क्योंकि उनको अपने परिवार को पालने के लिए धन अर्जित करने का एक सहारा भी तो चाहिए, उसके लिए वे जो काम करते हैं, उस काम से बचे समय में ही तो वे लिखते हैं. संघर्ष हम महिलाओं को भी करना पड़ता है. घर का काम भी देखो, बच्चों को भी देखो. उसके बाद लिखो. इसके लिए खुद में संतुलन बनाना पड़ता है, अपने आप को व्यवस्थित करना पड़ता है. जैसे मेरी जिंदगी है, अपने लिए तय कर रखा है कि इतने समय में मुझे लिखना है और लिखती हूँ. अगर नहीं लिख सकती तो कोई बात नहीं. मगर मैं अपने घर, अपने पति को नेगलेक्ट नहीं करुँगी.

यानी परिवार को अच्छी तरह चलाते सँभालते हुए भी कोई महिला लेखन कर सकती है?
हाँ, वह मेरी पहली ड्यूटी है. हर महिला की पहली ड्यूटी है. अगर हमने शादी की है, पति और बच्चे हैं तो पहला फर्ज यही है कि हम उनकी देखभाल करें. उसके बाद अपना शौक पूरा करें.

पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच आपके लिए लिखने का सबसे सही वक्त कौन सा होता है?
सुबह जल्दी उठती हूँ, रात को देर से सोती हूँ या रात को उठ कर लिखती हूँ.

आप जब कोई कहानी या उपन्यास लिखने बैठती हैं, एक योजना के साथ बैठती हैं. लेकिन रचना को समाप्त करने के बाद क्या आपको यह संतुष्टि मिलती है कि जैसा आपने सोचा था, पूरा हुआ? अपने लिखे को एक बार में पूर्ण मान लेती हैं या कई बार लिख कर भी पूर्ण नहीं मानती?
जब आप लिखने लगते हैं तो आप कहानी के प्रवाह में बहते चले जाते हैं, तब पता नहीं चलता. जहाँ पर लगता है कि अब बात मुक्कमल होगी, वहां पर रुक जाते हैं. और जहाँ लगता है कि अभी बात नहीं बन रही तो उसको वही छोड़ देते हैं. उसे दो तीन दिन बाद फिर लिखते हैं. अब यह पढ़ने वाले के ऊपर भी है कि मैंने रचना को जहाँ छोड़ा है, वहां उसे वह पूरी लगती है या नहीं. मैं जो कहना चाहती हूँ वह बात उसके मन तक जाती है या नहीं.

क्या लिखते समय पाठक आपके दिमाग में रहता है?
मैं प्रयास करती हूँ कि मैं जो कहना चाहती हूँ वो पाठक तक पहुँच जाये यानी संप्रेषित हो सके. तो इसके लिए मैं वैसे ही शब्द चुनती हूँ, जैसे चरित्र चुनती हूँ, जैसी कहानियां गढ़ती हूँ. अगर पाठक को मेरी बात वैसी ही लगी, जैसी मैंने कहनी चाही थी तो यह मेरी सफलता है. 
 
दो व्यक्तियों के बीच के संबंध की दूरी आपकी कई कहानियों का विषय है. मन के जो भी दुःख हैं, उन दुखों के रंगों की अलग अलग छाया आपकी कहानियों में अलग अलग तरह से उभरी है. इन्हें आपने अपने आस पास के जीवित चरित्रों से लिया है या सोच सोच कर गढा है?   
बहुत सारे कैरेक्टर रियल हैं जो मेरी कहानियों में हैं. कहानियां आखिर होती किसकी हैं, इंसान की होती हैं. इंसान हमारे आसपास हैं. ऐसे कुछ लोग होते हैं जो बहुत प्रभावित करते हैं या उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा खास होता है जो कि आपको प्रभावित करता है. जब आप कहानी में वैसे चरित्र को पिरोते हैं तब वे कैरेक्टर कहीं न कहीं आते ही हैं. कई बार जो लोग उनको जानते हैं वे समझ जाते हैं. जैसे मेरी एक कहानी है ‘पानी का रंग’, उसमें जो रोजी है, वह एक रियल कैरेक्टर है, वह बिलकुल वैसी है, जैसा मैंने लिखा है. मैं उससे कभी नहीं कहती कि यह तेरी कहानी है, वो मुझसे कभी नहीं कहती कि तुमने मेरी कहानी क्यों लिख दी. एक तो वो इतनी बड़ी आर्टिस्ट है, सित्जोफ्रेनिक भी है, जैसा कि लिखा है, वो जरुरतवश लोगों के पर्स से पैसे चुरा लेती है, उसके घर वाले उसकी परवाह नहीं करते. वह बहुत बड़े घर की लड़की है और उसने घर से भाग कर एक मामूली आदमी से लव मैरिज कर ली, वह पति उसे मारता था तो आखिर कैसी लव मैरिज थी वह?  जब उसके बच्चे का ऑपरेशन हुआ, तब उसके साथ कोई खड़ा नहीं था मेरे अलावा. अस्पताल में बिल चुकाने के पैसे नहीं थे उसके पास, मैंने दिए. यह अपनी तारीफ के लिए नहीं कह रही हूँ, कहानी और वास्तविकता पर बात हो रही है, इसलिए कह रही हूँ. उसकी बहन वाकई उसका सामान हड़पती जा रही थी. सब कुछ सच है, पर वो कहानी बनी भी अच्छी है.

मनोविज्ञान की पढ़ाई की वजह से आपको कहानियां बुनने में बहुत मदद मिल जाती होगी?
हाँ, मेरा मनोविज्ञान का अध्ययन मदद करता है मेरी. 
  
आपकी एक कहानी है ‘आते समय’. इसमें पूजा कहती है, जैसे तुमने बहुत कुछ देकर संसार की सभी खुशियाँ दे दी हैं मुझे– पत्थरों से प्रेम करते हो, पत्थरों को तुमसे प्रेम है. दीवारों पर कितने रंग चिपकाए तुमने, टाइलों, सिरेमिक्स, कांच के टुकड़ों के विभिन्न रंगों के बीच बस फंसे हो, जीवन का सुख दुःख तुम्हें कहाँ याद रहता है? यह पूजा नामक किरदार असल में कौन है?
(हँसते हुए) ये मेरे अपने जीवन की कुछ घटनाएं हैं. यह भी बिलकुल सच है. पूरा का पूरा ऐसा हुआ मेरे साथ. उस समय हमलोग बग़दाद में थे. जब ‘वो’ (पति श्री सुशील अंसल) वहां गए तो मैंने भी साथ चलने की बात की. उन्होंने कहा कि तुम मेरे साथ मत आओ. अभी वहां कुछ भी व्यवस्थित नहीं है. रहने की ठीक से जगह नहीं है. तुम वेजिटेरियन हो, तुम्हें खाने की भी दिक्कतें होंगी. मैं जिद्द करके चली गई. उनकी आदत है, सुबह से लेकर रात तक काम करने की. ये अपने काम पर चले जाते, यह कह कर कि अपना ख्याल खुद रखना. यह लगभग २० साल पहले की बात है. उनके जाने के बाद मैं तैयार होकर होटल के काउंटर पर गई. रिसेप्शनिस्ट से गाइड वगैरह के बारे में पूछा. उसने कहा कि हमारे पास ऐसा कोई इंतजाम नहीं है. मैंने पूछा कि फिर मैं शहर देखने कैसे जाऊं? भाषा की भी समस्या थी. वहां अंग्रेजी समझने वाले भी कम ही थे. उसने कहा कि हम आपके लिए एक टैक्सी का इंतजाम कर देते हैं, साथ में एक ऐसा आदमी दे दे रहे हैं जो अंग्रेजी बोल सकता है. मैंने बड़ी हिम्मत की और बिना सोचे समझे उसके साथ चल पड़ी. कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि कहाँ क्या है? भाषा की बड़ी समस्या थी. ड्राइवर अंग्रेजी बोल सकता था, यह राहत थी. लेकिन वह गाइड तो था नहीं. खैर, उसने एक मस्जिद के सामने गाड़ी रोकी. मस्जिद ही हैं वहां पर ज्यादा. मुश्किल यह हुई कि मैं मस्जिद के अंदर जाना चाहूं और गेटवाला मुझे अंदर जाने न दें. जब ड्राइवर गाड़ी पार्क करके आया तो उसने उससे बात की. फिर मुझसे कहा कि मैडम, आप बुरका पहन लीजिए. तब यह नहीं रोकेगा. मैं बुरका पहन कर अंदर होकर आई. वहां वह भी है, ‘हैंगिंग गार्डन ऑफ बेबीलोन’. वहां तो कुछ खास था ही नहीं, बड़ी निराश हुई मैं. खैर, यह कहानी उसी समय के सुखदुख को लेकर बुनी गई है. 
   
एक रचनाकार क्या अपनी रचना में गैर ईमानदार हो सकता है?
तो मैं आपको एक बात बता दूँ, अपनी जिंदगी में भी मैं ईमानदारी निभाती हूँ और लिखने में भी. मैंने अपनी आत्मकथा लिखी हुई है. जब सुशील जी की जीवनी ‘ब्रिक बाई ब्रिक’ अशोक मल्लिक लिख रहे थे, तो उनको मैंने अपनी आत्मकथा ‘जो कहा नहीं गया’ पढ़ने के लिए दी, साथ में फादर-इन-ला की जीवनी भी उनको दी. मैंने कहा कि पहले इन दोनों को पढ़ो, फिर लिखना शुरू करना. मेरी आत्मकथा पढ़कर उसने मुझसे पहला वाक्य कहा, यू आर सो फ्रैंक...आज भी मैं अपनी आत्मकथा पढ़ती हूँ तो मुझे लगता है कि वो मुझे नहीं लिखना चाहिए था. उस समय की मेरी मानसिकता वैसी रही होगी कि वैसा लिखा.

क्या आप डायरी भी लिखती हैं?
डायरी तो बहुत पर्सनल चीज होती है. बचपन में मैं लिखती थी, बाद में नहीं लिखा. हाँ, क्या करना है, क्या नहीं करना है, इसकी डायरी जरुर मेंटेन की. लेकिन यह अलग चीज है.

आपने बताया कि स्टार पब्लिकेशन से जब आपके शुरूआती उपन्यास छपे, तब आपको मालूम नहीं था कि वहां से छापने के कारण वो साहित्यिक नहीं माने जाएंगे. आखिर लोकप्रिय और साहित्यिक लेखन का फर्क आपके दिमाग में कैसे आया? आपने किस आधार पर चुना कि आपको लोकप्रिय लेखन नहीं करना है?  
देखिये, मैंने लेखन में किसी तरह का समझौता नहीं किया. मेरे मन जो आया, वही लिखा. लोकप्रियता की बात कभी मेरे मन में नहीं आई. जब मैं अपनी पहली पुस्तक स्टार पब्लिकेशन के अमरनाथ जी को देने गई तो उन्होंने उसे लेते हुए कहा कि हम गुलशन नंदा को बहुत छापते हैं. उस वक्त भी मेरे दिमाग में यह बात थी कि गुलशन नंदा साहित्यिक लेखक नहीं हैं. यह क्यों थी, कैसे थी, नहीं मालूम. वो किताब को लेकर अपने बेचने के बारे में सोच रहे थे, मैं अपने लिखने के स्तर के बारे में सोच रही थी.  और उसी वक्त यह सोच लिया था कि मुझे लोकप्रिय लेखक नहीं बनना है. जो मैं चाहती हूँ, वहीं लिखूंगी. अपने स्तर को और ऊपर ले जाउंगी. वैसे यह किसी भी लेखक की मर्जी है कि वह कैसा बनना चाहता है.

अब देखिये कि आपको शिवानी बहुत पसंद हैं, और हिंदी के आलोचक तो उनको साहित्यिक मानते ही नहीं. जो ज्यादा बिकता है, उसके साहित्यिक होने पर वैसे भी संदेह किया जाता है हिंदी साहित्य की दुनिया में. धर्मवीर भारती तक इसकी चपेट में हैं. क्या कहेंगी आप?
पाठक भी तो कई तरह के होते हैं न. पाठक तो अपने टेस्ट के हिसाब से पढता है. सब तरह के लेखक हैं और सब तरह के पढ़ने वाले भी. लिखने वाले की अपनी रूचि होती है तो पढ़ने वाले की भी.

आजकल हर क्षेत्र के आइकॉन हैं. हर माँ-बाप अपने बच्चे बच्चियों को वैसा बनाना चाहते हैं. कोई अपनी संतान को लेखक बनाना चाहता है, यह सुनने में नहीं आता. फिर भी ऐसे कुछ नौजवान होंगे जो अपने लेखन के बारे में आपकी राय जानना चाहते होंगे?
बहुत सी लड़कियां आती हैं मेरे पास. कुछ लोगों का लिखा मैं पढ़ती भी हूँ और उनका उत्साह बढाती हूँ. सलाह मशविरा भी देती हूँ कि कैसे लिखो, कैसे छपवाओ. हमारे आयोजन ‘संवाद’ में भी ऐसे बहुत लोग आते हैं. जिसकी रचना में थोड़ा भी दम है, वह आगे तो जायेगा ही. हाँ, आजकल आइकोन तो हैं ही बहुत.  टीवी पर बरखा दत्त है, उसको देख कर बहुत सी लड़कियां जर्नलिज्म करना चाहती हैं. लेखकों में शायद अमृता प्रीतम प्रेरणा देती होंगी या शोभा डे देती होंगी. हिंदी की लेखिकाओं को तो इतनी चमकदमक मिलती नहीं न? वैसे ये जो शोभा डे हैं, क्या लेखन है उनका? उनकी वो कौन सी शैली है, जिसकी वजह से वो सबसे बड़ी लेखिका मानी जाती हैं? पता नहीं. फिर भी ऐसे लोग अट्रैक्ट तो करते ही हैं नई पीढ़ी को. उनको लगता है कि हम भी ऐसा ही बनें. जैसे हमको अपने ज़माने में महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम बहुत अच्छी लगती थीं. कुछ लेखन ऐसे होते हैं कि आपके अंदर चले जाते हैं. और आप जिसका लिखा ज्यादा पढ़ते हैं, वैसा ही लिखने का आपका भी मन करता है.  

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