12 April, 2013

होना



सुख न कभी गिरा था
घर के आँगन में
धूप का टुकड़ा बनकर
शांति न लहलहाई थी
कभी पांव तले दूब बनकर
कितना चाहा बाबा ने
फिर भी नहीं गिरी-बिछीं खुशियाँ
दुआर पर हरसिंगार का फूल बनकर


हर साल खेतों में उपजता रहा
संतोष से ज्यादा अभाव
बाबा की पीठ पर लदा रहा कर्ज का वैताल  
सिर पर नाचता रहा बनिये का तकादा
उनका रोआं-रोआं मरता रहा
घर मांगता रहा सुख
चाहता रहा सुविधाएं
जरूरतें बिछ्तीं रहीं काई बनकर
और घर सन्नाटे की थाप पर
अलापता रहा कलह का राग
सुबह-शाम गला खोलकर

विपद स्थायी भाव था घर का
सबका- घर में सभी का
मन था नोनी लगा दीवाल
भुरभुराता रहता था हमेशा
घर साँसतघर था

फिर भी घर का होना
अच्छा लगता रहा बाबा को
घर समय से लौटना
जरुरी लगता रहा उनको
कहते साँस गहरी खींचकर
धीरे से कभी-कभार
जैसे फिरता है दिन घूरे का
फिरेंगे दिन इस घर के भी
तब भले ही मैं न रहूँ

बाबा होरी नहीं थे
मोहनदास करमचंद गाँधी भी नहीं थे वे
घर के मुखिया भर थे
जिसे चौखट की तरह
लतखोर होना जरुरी था
बाबा पाँव तले घिसते रहे घर भर के
हाथों में झूलते रहे घर भर के
नमक की तरह घुलते गए
घर की हिलोर मारती चिंता में

पर घर में फुर्सत थी किसको
पूछे, खाते वक़्त बाबा से-
सब्जी में नमक तो बराबर है न...
और तो नहीं चाहिए कुछ, थोडा और...
कहे उनसे- घिस गया है कुरता आपका
नया बनवा लीजिये अब
जानते हैं सब
बाबा खुद के लिए नहीं खरीदते कुछ
कभी से, कभी भी
जहाँ तक चल सके काम

बाबा मनमौजी हैं
कभी पढ़ते हैं रामचरितमानस
कभी गुनगुनाते हैं कबीरहा बानी
और कभी कहेंगे-
अरे, धरती से बड़ा कौन है?
कोई नहीं, कोई नहीं!

परिकथा: नवलेखन अंक 2007 में प्रकाशित 

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