02 January, 2013

डांस ने बदल दिए मेरे दिन: वहीदा रहमान


हिंदी सिनेमा की सबसे खूबसूरत और प्रतिभासंपन्न अभिनेत्रियों में वहीदा रहमान वह नाम हैं, जिनको कुछ लोग उनके नृत्य की वजह से बार बार याद करना पसंद करते हैं तो कुछ लोग उनके भावपूर्ण जीवंत अभिनय के लिए. लेकिन सभी उनकी जिस एक विशेषता को समान रूप से रेखांकित करते हैं, वह है उनके सौंदर्य और व्यक्तित्व की शालीनता. सफल फ़िल्मी कैरियर और सफल वैवाहिक जीवन जीने की हुनरमंद 76 वर्षीय वहीदा जी ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सौ साल के इतिहास में से लगभग आधे दौर को जिया है.  जुलाई  2012 में  'हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल’ में  इंडिया हैबिटैट सेंटर द्वारा उनकी फिल्मों के पुनरावलोकन का विशेष आयोजन  किया गया. उसी मौके से उनसे  'सरिता' पत्रिका के लिए  हुई  मेरी खास बातचीत  का  यह अंश:


फोटो सौजन्य: दिल्ली प्रेस
बचपन की कुछ वैसी यादों के बारे में बताएं, जिन्हें दुहरा कर आपको खुशी मिलती हो.
(सवाल सुनते ही चेहरे पर एक मीठी मुस्कान पसर जाती है) मेरा बचपन बहुत खूबसूरत था. हम चार बहने थीं. पिता डिस्ट्रिक्ट कमिशनर थे. हम पिकनिक मनाने बहुत जाते थे. कभी कहीं, कभी कहीं. परिवार के सभी लोग होते. पिताजी के अधिकारी मित्र भी अपने अपने परिवार के साथ होते. बड़े लोग मिलजुल कर खाना पकाते थे, गप्पे मारते थे, और हम बच्चों का काम होता था पत्थर चुन कर लाने का. ये पत्थर चूल्हा बनाने के काम आते थे वहाँ. हम लोग खूब खेलते, बहुत मजा आता. मेरा बचपन बहुत खुशहाल था. पिता का तबादला हर ढाई तीन साल में अलग अलग जगह होता रहता था. इसलिए मैं भाषाएँ भी कई सीख गई, थोड़ा बहुत बोलने लायक. तेलुगु और तमिल तो अच्छी तरह सीख गई थी.

आपका परिवार एक पारंपरिक कुलीन मुस्लिम परिवार था, भरतनाट्यम सीखना कैसे शुरू हुआ?
मैं बचपन में बीमार बहुत रहती थी. इस का असर पढ़ाई पर बहुत पड़ता था. कभी परीक्षा के समय ही बीमार हो गई, सेमेस्टर डिस्टर्ब हो गया. घर में हूँ तो क्या करूँ. तो ऐसे में परिवार में बात हुई कि डांस सीख लूँ. पिता जी ने भरतनाट्यम को चुना और मैने सीखना शुरू कर दिया.

आपने बचपन में डॉक्टर बनने का ख्वाब देखा था, उसे अधूरा छोड़ने की क्या वजह हो गई?  
उस समय डॉक्टरी का पेशा लड़कियों के लिए इज्जत का पेशा माना जाता था. वैसे और कुछ के बारे में मुझे मालूम भी कहाँ था? पिता अधिकारी थे तो उसी तरह की सोसायटी के परिवारों में आना जाना था. जब किसी के यहाँ गए तो मर्द मर्दों में और औरतें औरतों की जमात में बात करने बैठ जाते थे. बच्चों को कह दिया जाता कि तुमलोग अलग जाकर खेलो. हम बड़ों की बातें तो कभी सुन नहीं पाते कि दुनिया के बारे में कुछ ज्यादा जान सकते. मैं केवल डॉक्टरी पेशे के बारे में जानती थी और सोच लिया था कि वही बनूँगी. लेकिन जैसा कि बताया, बीमार बहुत रहती थी, इसलिए पढ़ाई पर असर पड़ता था. इसी वजह से शायद गंभीर इरादा बना नहीं, बस सोचा भर था. फिर तो डांस में मन रम गया. स्कूल में और बाहर भी स्टेज पर परफॉर्म किया. डांस की वजह से ही फिल्मों में काम करने का ऑफर आ गया.

तब शरीफ घरों की लड़कियों का फिल्मों में जाना कोई अच्छी बात नहीं मानी जाती थी. आपके पिता उच्च अधिकारी भी थे, ऐसे में आपके घर में फिल्मों और फ़िल्मी कलाकारों के बारे में किस तरह की राय थी?
मेरे पिता फिल्मों के बहुत शौक़ीन थे. चाहे जिस शहर में रहे, वहाँ पूरा परिवार फिल्म देखने के लिए सिनेमा हॉल गया. सिनेमा हॉल के मालिक भी कमिशनर साहब को नई फिल्म आने पर देखने के लिए बुलाते. उनके साथ देखी फिल्मों में बरसात, दास्तान वगैरह याद हैं. अशोक कुमार और लीला चिटनिस जैसे कलाकार उनको बहुत पसंद थे. इसलिए घर में फिल्मों को लेकर अच्छा नजरिया ही था. मेरे फिल्मों में आने से पहले पिता का इंतकाल हो गया था, तब मैं 13 साल की रही होउंगी.

फोटो सौजन्य: दिल्ली प्रेस 
फिल्मों में आपका कैसे आना हुआ?
फिल्मों में मैं डांस की वजह से आई. डांस ने ही मेरे दिन बदल दिए. तेलुगु फिल्म ‘रोजुलू मराई’ में एक डांस करने का मौका मिला. वह फिल्म 1955 में रिलीज हुई. उसी साल फिल्म सिटी में उसकी सिल्वर जुबली सफलता की सेलिब्रेशन पार्टी थी. उसमें हीरो हिरोइन सब आये थे. लेकिन पब्लिक ने हल्ला शुरू किया कि वो लड़की कहाँ है, जिसने डांस किया है. हमें उसको देखना है. फिर तो लोगों को शांत करने के लिए तुरत मेरे घर गाड़ी भेज कर मुझे बुलवाया गया. जब मैं वहाँ पहुंची तो पब्लिक ने मुझे देखने के लिए मेरी गाड़ी को घेर लिया. उस दौरान गुरुदत्त जी वहाँ अपनी फिल्म के सिलसले में किसी मीटिंग के लिए गए थे. जब उन्होंने बाहर हो-हल्ला सुना तो पूछा कि क्या बात है. उनको किसी ने सारा हाल बताया. गुरुदत्त जी ने कहा कि तब तो उस लड़की को हमें भी देखना चाहिए. और उसी के चार महीने बाद उनके दफ्तर से मेरी माँ के पास चिट्ठी आई कि वहीदा को फिल्म में अभिनय के लिए मुम्बई लेकर आयें. मुझे ‘सी.आई.डी. फिल्म के लिए वैम्प का एक रोल ऑफर हुआ था. यह फिल्म 1957 में आई. फिर ‘प्यासा’ में लीडिंग रोल मिला. उसके बाद तो सिलसिला शुरू हो गया फिल्में मिलने का.  

अपनी पहली ही फिल्म में वैम्प का रोल करना क्या आपको अपने कैरियर के लिए खतरनाक नहीं लगा?
उस वक्त मुझे फ़िल्मी दुनिया के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था, जो काम मिला, किया. गाइड करने के समय कुछ लोगों ने जरुर आगाह किया कि रोज़ी जैसी लड़की का कैरेक्टर निभाने जा रही हो, जो अपने पति को छोड़ कर एक दूसरे लड़के के साथ रहने चली जाती है, दर्शक पसंद नहीं करेंगे. तुम्हारे आगे के कैरियर पर भीं असर पड़ेगा. लेकिन मैने किया, क्योंकि मुझे वह रोल अच्छा लगा, चैलेंजिंग लगा.

बुनियादी तौर पर एक डांसर होने का एक अभिनेत्री के रूप में आपको क्या फायदे मिले?
देखिये, उस जमाने में अभिनय का कोई कोर्स तो होता नहीं था, काम करते करते ही सब कुछ सीखते थे.
मैं जब फिल्मों में काम करने आई तो मैं पहले से एक डांसर होने की वजह से भाव और रस वगैरह तो जानती थी. क्योंकि नृत्य में तो भाव का बड़ा महत्व है. इसलिए मुझे अभिनय करते समय फेसियल एक्सप्रेशन देने में कोई खास दिक्कत नहीं होती थी, तो लाभ तो मिला ही. 

जब आप फिल्मों में नई नई आई थीं, तब आपको नींद बहुत प्यारी थी. किस तरह की परेशानियों से गुजरना पड़ा आपको नींद की वजह से?
हाँ, तब मुझे जल्दी सोने की आदत थी. कोलकाता में ‘प्यासा’ के एक गाने ‘जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैने सुनी’ को देर रात में फिल्माया जा रहा था. मैं अपनी कुर्सी में ही सो गई थी. जब शॉट रेडी हो गया तब मेरे चेहरे पर पानी छिड़क कर मुझे जगाना पड़ा. गुरुदत्त ने कहा कि चाय पी लो, ताकि नींद खुल जाए. लेकिन तब मैं चाय नहीं पीती थी. खैर, वो गाना बड़े खूबसूरत ढंग से फिल्माया गया. लोगों ने उसमें मुझे बहुत पसंद भी किया, लेकिन मैं आज भी उस गाने को देख कर सोचती हूँ कि कैसे मैं गहरी नींद से उठ कर ऐसा अभिनय कर पाई.

क्या अब भी चाय नहीं पीतीं?
अब तो पीती हूँ, लेकिन दो से तीन बार. इस से ज्यादा नहीं.

‘प्यासा’ में ही एक गीत है ‘आज सजन मोहे अंग लगा लो’, वह आप पर फिल्माए गए सभी गानों में सबसे सेंसुअस जान पड़ता है. उसमें चेहरे पर, आँखों में जिस तरह से कामना दिखाई पड़ती है, वह बहुत प्रभावी है. क्या आप भी ऐसा मानती हैं?
(थोड़ा शरमाते हुए) हां, है तो, भाव के स्तर पर.

गुरुदत्त और आपका संबंध शुरू से बहुचर्चित रहा है. हालाँकि आपने उन्हें अपना मेंटर ही माना है और उनके लिए हमेशा आदर प्रकट किया है, बावजूद इसके अभी भी लोग लिखते और कहते हैं कि गुरुदत्त आपसे इकतरफा प्यार करते थे. क्या वाकई ऐसा था, क्या उन्होंने कभी आप पर यह जाहिर होने दिया था?
देखिये, यह तो मीडिया वाले लोगों की बनाई हुई कहानी है. न कुछ जानते हैं, न समझने की कोशिश करते हैं, जरा सी बात का बतंगड बना देते हैं. गुरुदत्त ने मुझे फिल्मों में काम करने का मौका दिया, उनके साथ मेरी लगातार फिल्में आईं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि हमारे बीच कुछ था ही. उन्होंने तो मुझे कभी नहीं रोका कि किसी और के साथ काम मत करो. जब मैं उनके साथ काम कर रही थी, तभी देवानंद के साथ भी काम कर रही थी. मैने तो सबसे ज्यादा फिल्में देव के साथ की हैं, लेकिन गुरुदत्त के साथ नाम जोड़ दिया गया, कहानी बना दी गई.

फोटो सौजन्य: दिल्ली प्रेस 
लोग गुरुदत्त की आख़री वक्त की निराश मानसिकता को उनकी प्रेम की असफलता से जोड़ कर देखते हैं.
लोग नहीं, पत्रकार. देखिये, मैने गुरुदत्त साहब के साथ आख़री फिल्म की थी ‘साहब, बीबी और गुलाम’ 1962 में, उसके बाद उनके साथ कोई फिल्म नहीं की. दुर्घटना हुई 1964 में. अगर उनकी निराशा में मुझसे संबंध का कोई असर था तो वह 2 साल बाद क्यों हुआ, तभी क्यों नहीं हुआ?

क्या यह सही नहीं है कि तब हीरो हिरोइन आपसी लगाव का इजहार करने से बचते थे. आज तो हीरो से पहले हीरोइनें ही संबंध बनने और बिगड़ने की सार्वजनिक घोषणा तक कर देती हैं.
तब समय अलग था, अब अलग है. आज हीरो हिरोइन फिल्म के प्रोमोशन के लिए कहीं जाते हैं, हाथ से हाथ छू गया, जरा हंस कर बात कर लिया तो बात शुरू हो जाती है कि इनके बीच कुछ है. हमारे समय में तो हाथ छूने का सवाल ही नहीं उठता था. एक दूसरे की तरफ जरा नजर भर देख क्या लिया कि कहानियां बननी शुरू हो जाती थीं. मेरी बेटी के स्कूल में उसका फेयरवेल था. मैं उसको लेने गई तो सब लड़के लडकियां एक दूसरे से गले मिलकर विदाई ले दे रहे थे. मैं तो हैरान रह गई. बेटी से पूछा कि यह क्या है. उसने कहा कि माँ अब जमाना बदल गया है. हम लोग ऐसे ही रहते हैं. यह आपका समय नहीं है. वाकई हम तो ऐसा सोच भी नहीं सकते थे. आज माधुरी अपने शो में अगर किसी से गले मिलती है तो इसमें बुरा क्या है. हमें तो बहुत बचबचा कर रहना होता था.

अपने समय में जिन अभिनेताओं के साथ काम किया, उनमें किसका व्यक्तित्व आपको बहुत पसंद आया?
देवानंद, गुरुदत्त, राजकपूर, दिलीप कुमार, सुनील दत्त, राजेश खन्ना, राजेंद्र कुमार, अमिताभ बच्चन सबके साथ काम किया. सब अच्छे लोग थे. अमिताभ के साथ जब काम किया तब से अब तक एक जैसा संबंध है. अमिताभ अभी भी वैसा ही व्यवहार करते हैं. वो बहुत आदर देते हैं. एक बार की बात है, मैं एक समारोह से निकली. वो भी वहाँ से निकल रहे थे. लोग उनके पीछे पड़े थे, लेकिन वो मेरे साथ चले आ रहे थे. मैने कहा, आप जाइए. आप लोगों से घिर जाएंगे. बोले, नहीं. आपको गाड़ी में बिठाकर आऊंगा. लोगों का क्या है. और वे मुझे गाड़ी में बिठाकर ही लौटे. वो बहुत शालीन हैं, आज कामयाबी के जिस मुकाम पर हैं, उससे भी आगे जायें, मैं तो यही चाहूंगी.

फोटो सौजन्य: दिल्ली प्रेस 
अपने साथ और बाद की अभिनेत्रियों में किसे सुन्दर मानती हैं?
मीना कुमारी. उनका अपीयरेंस परदे पर हो या परदे से बाहर, बहुत गंभीरता और गरिमा होती थी. मधुबाला मुझे पसंद थीं. वैजयंतीमाला भी. आशा पारेख, माला सिन्हा, नरगिस, माधुरी भी. ऐश्वर्या राय आज की अभिनेत्रियों में बहुत सुन्दर है. विद्या बालन को मैं बहुत पसंद करती हूँ, वो जैसे रोल चुनती है, जिस तरह का अभिनय है उसका, सब पसंद है मुझे.
 
अपने अब तक के जीवन को किस तरह देखती हैं?      
मैने जो कुछ किया उसका कोई रिग्रेट नहीं है, किसी से कोई शिकायत नहीं है. इंडस्ट्री में सबके साथ काम कर के बहुत अच्छा लगा. मेरी बहुत शुभकानाएं हैं नए लोगों को. खूब आगे बढ़ें, अच्छा करें.


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