हिंदीभाषी समाज में विसंवादी सुर अनायास लग जाता है, संवादी सुर सायास भी लगभग नहीं लग पाता। वजह चाहे जो हों, ऐसे मौके भला कहां देखने को मिलते हैं कि हिंदी के व्यापक हित से जुड़े किसी मुद्दे के लिए भी, सभी तरह के लोग एक मंच पर इकट्ठे होते हों। और तो और, हम अपनी भाषा के महान रचनाकारों का सम्मान करने में भी अपना मत भेद-रहित होकर प्रकट नहीं कर पाते। क्या यही वजह नहीं है कि हिंदी का बड़ा से बड़ा रचनाकार शासन-प्रशासन की उपेक्षा का शिकार हो जाता है?
यह वर्ष हिंदी के तीन-तीन महान साहित्यकारों का जन्मशती वर्ष है और हम देख रहे हैं कि एक खास तरह की सरकारी खामोशी हमेशा की तरह पसरी हुई है। क्या ये तीनों व्यक्तित्व हिंदी प्रदेशों की जनता की ऐसी ही उदासीनता या इतने ही उत्साह के हकदार हैं? और उसमें भी जनकवि नागार्जुन, जिन्हें जीते-जी यह सवाल बहुत कोंचता रहा कि “साहित्य क्या राजनीति के आगे फटी जूती भी नहीं है?” जिनके लिए ‘साहित्यकार के व्यक्तित्व को साहित्यकार के नाते पूर्ण मान्यता’ दिलवाने का संघर्ष बहुत बड़ा मसला था, जो केवल ‘अपने पाठकों' से डरते थे, जिन्होंने अपनी भूमिका साफ तौर पर चुन ली थी। जिनको जनता की बात सुननी थी, जनता को जवाब देना था। आत्मा की बांसुरी से उठने वाले अनहद नाद को सुनने के लिए, उनके मुताबिक कवि को “सर्वतंत्र स्वतंत्र, निर्लिप्त-निरंजन कलाकार, अन्तरतर के प्रति सर्वथा ईमानदार” होना जरूरी है, “बड़ी-बड़ी तनखाह, प्रचुरतम रायल्टी, एकमात्र शाश्वत सत्य के प्रति लायल्टी” का होना जरूरी है। अपने बारे में तो उनका कहना था कि
हम तो भाई निहायत मामूली किस्म के
अदना-से आदमी ठहरे
पड़ती है उलझन
सुलझा भी लेते हैं
कैसी भी गांठ हो, खुल ही जाती है
मोटी अकल है
अटपटे बोल हैं
शऊर है न कुछ भी।
अदना-से आदमी ठहरे
पड़ती है उलझन
सुलझा भी लेते हैं
कैसी भी गांठ हो, खुल ही जाती है
मोटी अकल है
अटपटे बोल हैं
शऊर है न कुछ भी।
यह खूबी नागार्जुन की है या किसी भी आम भारतीय किसान की, इस पर गौर करने की जरूरत है। दरअसल किसानी नहीं करने के बावजूद नागार्जुन का पूरा का पूरा व्यक्तित्व एक किसान का था। वो उसी के जीवन के मुहावरे में जीते-सोचते-बोलते थे। जैसे एक किसान अपने पूर्वजों से जो कुछ सहज भाव में ग्रहण करता है, उसका जीवन भर आदर करता है और अपने आगे की पीढ़ी को भी वह उसे सौंपना चाहता है, वैसे ही नागार्जुन के जीवन में भी दीखता है। लेकिन जड़ रूप में तो नहीं ही।
बाबा अपने पूर्ववर्तियों में सबसे ज्यादा निराला से प्रेरणा ग्रहण करते दिखाई पड़ते हैं। उनके प्रति उनके मन में अशेष श्रद्धा है। ‘एक व्यक्ति : एक युग’ में लिखा है, “मैं सोचता हूं, निराला 1961 के बदले 1951 में ही उठ गये होते तो क्या हर्ज था! उनके पक्ष में कोई हानि नहीं होती… तो फिर, पिछले दस वर्षों में जिंदा रहकर निराला जी ने क्या किया? पिछले दस वर्षों में जिंदा रहकर उन्होंने एक भारी काम किया। वह हमें अपने स्वरूप का बोध करा गये। साहित्यिक – पूर्ण और शुद्ध साहित्यिक – आज भी अर्थात स्वाधीनता प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी कितना अनाथ है, कितना असहाय है, किस प्रकार अवहेलित है! अगर साहित्यकार राजनीतिज्ञों का अनुगमन करने से हिचकता है तो भौतिक तौर पर उसका भविष्य अंधकारपूर्ण है… साहित्यकार का साहित्य पक्ष अगर गौड़ हो और व्यवहार-पक्ष प्रबल हो, तभी जी सकता है आखिरकार!”
नागार्जुन साफ-साफ बोलने वालों में से थे। उन्होंने लिखा है कि “राजनीतिज्ञों के मत्थे सारा दोष मढ़कर यदि हम निश्चिंत हो जाएं तो यह अविवेक की पराकाष्ठा होगी। क्या हम साहित्यकार एक दूसरे की टांग खींचने में किसी से कम हैं? क्या हम एक दूसरे का सम्मान करते हैं? क्या साहित्य को हमने खुद ही खिलौना नहीं बना रखा है?” इन सवालों का जवाब देना उतना ही मुश्किल है, जितना इनको नजरंदाज करना। 31 मार्च 1971 को नागार्जुन द्वारा नरेंद्र कोहली को लिखी चिट्ठी में एक बात अलग से ध्यान खींचती है, “प्रकाशक परोक्ष में एक-दूसरे को ‘चोर’ और ‘फरेबी’ कहते हैं। वैसे ही साहित्यिक भी परोक्ष में एक-दूसरे के लिए गालियां निकालते हैं।”
12 दिसंबर 1980 को विजय बहादुर सिंह को नागार्जुन ने इलाहाबाद से एक चिट्ठी लिखी थी। एक आहत मन की गूंज है चिट्ठी की भाषा और लहजे में। कुछ जरूरी पंक्तियां – अपने बारे में मित्रों एवं अमित्रों के मंतव्य सभी को सुनने पड़ते हैं… मुझे यह सब व्यर्थ लगने लगा है। किसने, कब, कहां मेरे प्रसंग में क्या कहा? … वामपंथी एवं वामगंधी बंधुओं के परामर्श, चेतावनियां, शीतोष्ण उपदेश … यह सब मेरे इन कानों तक पहुंचते रहे हैं… परंतु सर्वाधिक परवाह जिस तत्व की मैं करता हूं वह कोई और तत्व है। जिस शक्ति से मैं ऊर्जा हासिल करता हूं, वह कोई और शक्ति है… मुझे संघर्षशील जनता का विपन्न बहुलांश ही शक्ति प्रदान करता है। कोटि-कोटि भारतीयों के वे निरीह, पिछड़े हुए, अकिंचन, दुर्बल समुदाय जो चाहने पर भी अपना मतपत्र नहीं डाल पाये, मेरी चेतना उनकी विवशताओं से ऊर्जा हासिल करेगी।”
यह बात नागार्जुन की और भी चिट्ठियों में, कविताओं में कई तरह से दर्ज है। हालांकि इसी चिट्ठी में यह सरोकार थोड़ा और भी स्पष्ट हुआ है, जब नागार्जुन लिखते हैं कि “वराह मिहिर और आर्यभट्ट, चरक और सुश्रुत कौन थे, हमारे ही पूर्वज तो थे। अपने इन पूर्व पुरुषों के प्रति मेरा मस्तक हमेशा झुका है। विजय बाबू। आपको हंसी तो नहीं आएगी यदि मैं यह बतलाऊं कि अपने खेतों में अधिकतम आलू उपजाने वाले उस किसान के प्रति भी मैं अपना यह मस्तक उसी प्रकार झुका दिया करता हूं। अपनी बगिया में सर्वोत्तम आम पैदा करने वाले उस किसान के प्रति भी मैं अपनी आतंरिक श्रद्धा निवेदन करता हूं…” और फिर यह भी पूछना नहीं भूलते कि तिकड़म से या झूठ मूठ के वायदे करके या जातिवाद-क्षेत्रवाद आदि के लुभावने नारे उछाल कर जैसे-तैसे वोट बटोरने वाले विजयी सांसद के प्रति मेरे अंदर यदि अश्रद्धा छलकती दिखाई पड़े तो क्या आप मुझे पागल करार देंगे? न बाबा, न! आपको पागल क्यों करार देगा कोई? बौद्धिक श्रम के तुल्य शारीरिक श्रम को रख कर आप एक मनुष्य की गरिमा के समतुल्य दूसरे की गरिमा को स्थापित कर रहे हैं और आपको पागल कहा जायेगा? यह पूरी जाति व्यवस्था इसी आधार पर तो फली-फूली है कि श्रम के एक प्रकार को दूसरे प्रकार से कमतर करके आंका गया है। अगर सभी कामों की प्रतिष्ठा बराबर मानी गयी होती तो बड़े-छोटे, छूत-अछूत का यह विकट भेद भला कैसे टिका होता।
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22 अगस्त 2010 को 'जनसत्ता' में प्रकाशित.
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नागार्जुन की बात को न समझने में दिक्कत है, न स्वीकारने में दुविधा, क्योंकि वो उलझा कर नहीं कहते, क्योंकि उन्हें कुछ छुपाने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि उनके व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन में कोई फांक नहीं था, क्योंकि वो अपने आप के भी उतने ही कठोर आलोचक थे, जितना कि दुनिया-जहान के। उन्होंने ताल ठोक कर लिखा :
जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊं
जनकवि हूं मैं साफ कहूंगा, क्यों हकलाऊं।
जनकवि हूं मैं साफ कहूंगा, क्यों हकलाऊं।
और हिंदी समाज में साफ-साफ बोलना कोई आसन काम तो है नहीं। सो आजीवन टकराव का सामना करते रहे, लेकिन जगत-व्यवहार के छल-छद्म का अपनी रचनाओं में पर्दाफास करना नहीं छोड़ा। जो बात कविता में नहीं कही जा सकी, वह उपन्यास में आयी, लेकिन जनता के सामने आयी। मैथिली कविता ‘अपन आ आनक’ में लिखा कि :
अपना मल परिमल
दूसरों का मल विष्ठा
दूसरों की बात जिद
अपनी जिद निष्ठा
…
मेरी गोली कोमल दनुफ के फूल
दूसरों की कलम त्रिशूल
दूसरों का मल विष्ठा
दूसरों की बात जिद
अपनी जिद निष्ठा
…
मेरी गोली कोमल दनुफ के फूल
दूसरों की कलम त्रिशूल
8 नवम्बर 1970 को रामविलास शर्मा को चिट्ठी में लिखा है कि “अफ्रो-एशियाई का बड़ा जोर है इन दिनों… यह साफ है कि इन्दिरापंथी और रूसपंथी साहित्य-पुरोहितों की अगवानी में बाहर के काफी मेहमान यहां जुटेंगे। बाहर के गुरिल्ला जन-पुत्रों के बारे में भले ही दो-चार शब्द कह-सुन लिए जाएंगे; मगर श्रीकाकुलम में, बंगाल में और अन्यत्र सैकड़ों की तादाद में जो धरतीपुत्र मारे जा रहे हैं, उनकी याद तक न की जाएगी! ठीक है, ‘सरकारी हिंसा हिंसा न भवति’।” व्यंग्य की यह बेधकता नागार्जुन के लेखन में कुछ और ही तेज हुआ करती है। ‘ठीक है’ एक गहरे उच्छ्वास की तरह लग रहा है जिसके कारण ‘सरकारी हिंसा हिंसा न भवति’ एक भीषण लाचारी का बिम्ब बन कर कौंधता है। और जरा इन पंक्तियों को आज के सन्दर्भ में विचारा जाए। मुझे यकीन है कि बाबा हंस की इस साल की गोष्ठी में होते तो वहां उपस्थित सभी नौजवानों से गले लिपट गये होते, माथा चूम लिया होता।
‘खेत-मजदूर और भूमिदास नौजवान,’ ‘खदान-श्रमिक और फैक्ट्री-वर्कर नौजवान’, ‘कैंपस के छात्र और फैकल्टियों के नवीन-प्रवीण प्राध्यापक’– इन्हीं को बाबा नागार्जुन अपनी शेष आस्था अर्पित करना चाहते थे, इन्हीं के लिए जीना मरना चाहते थे। उन्हें लगता था कि इन्हीं लोगों के भीतर आगामी युगों के लिब्रेटर तैयार हो रहे हैं। पता नहीं, आज अगर जीवित होते तो क्या कहते, लेकिन तब भी उनके जैसा ‘पगलेट बाबा’ यही कहता-
मैं तुम्हारी जूतियां चमकाऊंगा
दिल बहलाऊंगा तुम्हारा
कुछ भी करूंगा तुम्हारे लिए…
दिल बहलाऊंगा तुम्हारा
कुछ भी करूंगा तुम्हारे लिए…
क्योंकि उनका तो बड़ा मासूम सा अकाट्य सवाल था न -
अपने स्वप्नों को पूरा करने की खातिर
तुम्हें नहीं तो और किसे हम देखें बोलो!
तुम्हें नहीं तो और किसे हम देखें बोलो!
और उन्हें जीवित रहते जहां कहीं भी जरा भी संभावना की चिंगारी दिखी, उसे हवा देने की पूरी कोशिश की। नरेंद्र कोहली को 1972 में लिखी एक चिट्ठी में बाबा ने सुझाव दिया कि “अपनी लेखक गोष्ठी को इस बात के लिए तैयार करो कि सहिष्णतापूर्वक – और, आतंरिक स्वच्छता और ‘टीम स्पिरिट’ के साथ – एक दूसरे के विकास में ‘कामरेडशिप’ निभाएं… आपसी सुविधा के लिए साइक्लोस्टाइल पत्रिका (मासिक या पाक्षिक) अवश्य निकालें।” और लगे हाथों बाबा ने यह व्यावहारिक सुझाव भी दिया कि व्यावसायिक पत्रिकाओं का भी खुल कर सहारा लें, कमर्शियल राइटिंग की एकांगी आलोचना न करें, स्वयं भी ऐसे लेखन से परहेज न रखें जिससे ‘चार पैसे’ मिल जाते हैं। ‘निहायत ऊंची कोटि का साहित्य ‘और ‘निहायत घटिया लेखन का गटर प्रवाह’… इन दोनों अतियों से बचने की सीख बाबा ने इस चिट्ठी में दी है।
1970 में नंदकिशोर नवल को एक साहित्यिक समारोह करना था। बाबा ने उन्हें चिट्ठी में लिखा कि “पुराने मनीषियों की आयु-सीमा तुम पचास ही रखना! पचीस से पचास तक की आयु-सीमा ‘युवा लेखक सम्मलेन’ को नव -चिंतन की सही धुरी से च्युत नहीं होने देगी… बौद्धिक धरातल पर अति वाम-वामातिवाम, सहज वाम एक ओर… दूसरी तरफ अति दक्षिण। दक्षिणातिदक्षिण, सहज दक्षिण… और मध्यवर्ती (यथास्थितिवादी)… सभी प्रकार के युवक साहित्यकारों को आमंत्रित करो।”
बाबा समझाते हुए अपनी बात लिखते हैं कि बेहिचक… बेखौफ। दो तरुण यदि सामयिक प्रवृत्तियों की नक्सली मीमांसा से श्रोता-समूह को प्रभावित करना चाहें, करने दो प्रभावित। मगर मधोक-गोलवलकर वाली दर्शन पद्धति का सहारा लेकर यदि कोई अति-दक्षिण रुझान श्रोताओं में पैदा करना चाहे तो उसे भी छूट दो… ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’। अभी इसी साल हंस की सालाना गोष्ठी के प्रसंग में जिस तरह की चर्चा छिड़ी थी या ऐसे प्रसंगों में आजकल जिस तरह से सोचा जाने लगा है, बाबा की इस बात पर नयी तरह से विचार जरूरी है।
नागार्जुन ‘बाबा‘ कहलाना पसंद करते थे। नयी पीढ़ी को प्यार करते थे। किसी भी युवक-युवती से मिलने को सदा तत्पर रहते थे। किसी के भी गांव जाने में उन्हें ज्यादा दिलचस्पी रहती थी। मैं दरभंगा जब उनसे मिलने गया, तो उनकी दिलचस्पी इस बात में बहुत थी कि मैं तरौनी भी जाकर घूम-देख आऊं। उनकी कविताएं पढ़ी गयी हैं, उपन्यास पढ़े गये हैं, लेकिन बेजोड़ चिट्ठी-लिक्खाड़ यात्री नागार्जुन जी की चिट्ठियों को पढ़ा जाना भी बहुत जरूरी है, आखिर वो देश भर के लोगों से, खास तौर पर अपने समय की नौजवान पीढ़ी से किस तरह का संवाद लगातार कर रहे थे, किस तरह की संभावना के बीज सबमें रोप रहे थे, यह ध्यान देने लायक होगा। बाबा के जन्मशताब्दी वर्ष में ‘साहित्यकार के व्यक्तित्व को साहित्यकार के नाते पूर्ण मान्यता’ दिलवाने के संघर्ष पर विचार भी क्या जरूरी नहीं है? नागार्जुन महान साहित्यकार थे, यह सिद्ध करना बड़ी चुनौती नहीं है। बड़ी चुनौती यह है हिंदीभाषी जनता के बीच ऐसे निष्कलंक, उज्ज्वल, प्रेरक व्यक्तित्व को एक प्रतिमान के रूप में कैसे पेश किया जाए। क्योंकि आज हिंदीभाषी जनता को इसकी ज्यादा जरूरत है।
मोहल्ला लाइव पर पुन:प्रकाशित
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