आधी रात तक या उसके बाद भी जागने की आदत उसी उम्र में लगी थी, जिस उम्र में पड़ोस के घर में बालेसर के गीत बजने शुरू हुए थे। हुआ यह था कि पड़ोस के बाबा किसानी करने और बैलगाड़ी हांकने से तंग आकर या नये तरह के धंधे में ज्यादा आमदनी की उम्मीद से एक ‘लाउडस्पीकर मशीन’ खरीद लाये थे। जी हां, हम इसी नाम से उस बाजा को जानते थे। एक गोल-गोल घूमने वाली मशीन होती थी, जिस पर काला-काला तवा चढ़ा दिया जाता था, और भोंपू से आवाज बड़ी टनकदार निकलती। गांव-जवार भर गनगना जाता। लगता कि रेडियो से सच में बड़ा बाजा है यह! और उसी बाजे से सुना था बालेसर का गीत। “अई अई अई अई…” से शुरू होने वाले ज्यादातर गीतों में अपने याद रह जाने वाली पंक्तियां बस दो गीतों की ही रहीं – “दहेज कुर्सी मेज मांगे मंगरू” और “आरा हिले बलिया हिले छपरा हिलेला”। उम्र तब इतनी ही थी कि आरा, बलिया और छपरा के हिलने की बात समझ में नहीं आती थी। लेकिन जाने इन पंक्तियों में या उस आवाज में क्या दुर्निवार आकर्षण था कि जीवन की तमाम आपाधापी में भी आज सब कुछ जस-का-तस जेहन में उभर आया है।

तब अचानक इस बात पर भी ध्यान गया कि आज तक जिसे मैं बचपन के अभ्यासवश बालेसर-बालेसर जपता रहता था, उनका असल का नाम तो बालेश्वर ही रहा होगा, जिसे अविनाश ने अनायास ठीक करवा दिया। और हाय रे भोजपुरिया समाज की सामंती धरती!!! ‘छन्नू मिसिर’ जी महाराजगंज गाने आये तो छन्नू महाराज आसे हैं। भले ही उनका गाया कितना कुछ बुझाया या नहीं बुझाया। मीसरी दूबे आलाप भरें तो ‘बाबा गावतानिं’, ‘रामपरकास मिसिर’ ‘पें-पां’ करें तो उनका मजाक उड़ाने के बावजूद जनता बोले कि ‘मिसिर जी गावतानिं’, लेकिन जब बालेसर का गाना बजे, जब ‘लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर’ बकलोल से बकलोल मानुष भी ‘बाह रे बाह’ करने लगे – तब भी जनता बोले कि “बलेसरा ह? बड़ बढ़िया भाई!” कभी बालेसर या बालेश्वर सुना ही नहीं। बाबा की संस्कारी भाषा में, “ई रात-बिरात कबो बालेसर के बजावे लागs तारे, आदमी कब सुतो, कब उठो?”, सुन कर ही बालेसर कहने का अभ्यास बन गया कम से कम। खैर…
बालेश्वर जिंदा थे, मुझे कम से कम यह तथ्य मालूम नहीं था। न किसी से चर्चा में सुना था, न किसी ने पूछने पर कभी बताया। होश की उम्र आने से पहले ही तवे वाली मशीन का जमाना ‘टेप रेकार्डर’ ने खत्म कर दिया और तवे में चढ़े गीत तवे में ही जाने कब कैसे बिला गये। कहीं कैसेट नहीं मिला बिहार, यूपी के बाजार में। जहां भी कम से कम मैंने ढूंढा। उनके चाहने वाले हजार मिले, उनको सहेजने वाला कोई एक न मिला। जिस जिस तरह की किंवदंतियां उनके बारे में सुनने को अब भी भोजपुरीभाषी लोगों से जब-तब मिल जाती हैं, उसने एक तरह से आश्वस्त कर दिया था कि बालेसर कब के गुजर चुके हैं। पूछने पर सुनने को भी यही मिलता, “का जाने, मर बिला गईल होई अब त ना त कुछ मालूम चालित ना!”
असमय विस्मृति के शिकार इस महान गायक को अगर मैं लोकगायक कहूं, तो कुछ लोग लोकगायक की शास्त्रीय परिभाषा की याद दिलाने लगेंगे। लेकिन मैं कहना चाहता हूं। चाहे आप कहें कि मैं भावुक हो रहा हूं। दहेज के जिस मायालोक को मैंने जरा सी बुद्धि होते ही देखना-बूझना शुरू कर दिया था, उसका मजाक उड़ाते पहली बार सुना बालेसर को। घूस के खिलाफ गाना सुना बालेसर का। और इन दोनों के प्रति जो वितृष्णा का भाव मन में बैठ गया, उसका सारा क्रेडिट मैं बालेसर को दे रहा हूं। और क्या करता है भला एक लोकगायक! भोजपुरिया इलाके में सामंती ठसक और वर्चस्ववादियों की नाजायज हरकतों की विरोध करने वाला कलाकार कभी बहुत पनप नहीं पाया, पनप भी गया तो शायद-संयोग से। लेकिन तब भी उसे स्मृति लोप का शिकार बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा बबुआनों ने। मुझे लगता रहा है कि बालेसर उसी के शिकार हुए। या बदलते बाजार में ‘फिट’ नहीं हो पाने की मार खा गये बालेसर? या उनकी अपार लोकप्रियता और अकूत नैसर्गिक क्षमता की वाजिब परवाह नहीं की कैसेट बनाने-बेचने वाली कंपनियों ने? मुझे ठीक-ठीक कुछ नहीं मालूम। लेकिन मैं इतना जानता हूं कि भोजपुरी समाज जिस कलाकार पर कभी भी, कहीं भी गर्व कर सकता था, उसके जीते-जी उसकी एक तरह से नाकद्री ही की और अब हमेशा के लिए खो दिया…
रात गहरी है, न हरसिंगार और बेला की गंध फूट रही है किसी ओर से, न बालेसर की खनकती आवाज रिस रही है किसी दिशा से…
मोहल्ला लाइव में प्रकाशित