01 October, 2010

हे राम! किसके हृदय में बसे रहना चाहते हो…


हे राम! क्या तुम उस चबूतरे भर में टिक-बस जाने आओगे अब?

तुम वही राम हो न, जिसने उत्तराधिकार में मिले राज्य को ठुकरा कर चौदह साल का बनवास चुना था? (क्या वह तुम्हारा भावुक फैसला था?) तुम वही राम हो न, जिसने बालि को मार कर उसका राज्य उसके छोटे भाई सुग्रीव को दे दिया था? (क्या सुग्रीव के साथ तुम्हारी यह लाचारी में की गयी संधि थी?) तुम वही राम हो न, जिसने सोने की लंका को जीत कर भी उसमें पांव तक नहीं रखा था? (क्या विभीषण के साथ तुम्हारा कोई गुप्त समझौता था?) तुम्हारे अश्वमेध यज्ञ को तुम्हारे बेटों ने विफल किया था। सिद्धि न मिल सकी तुम्हें। कभी-कभी सोचता हूं कि तुम्हें जीवन से ‘यश’ के सिवा मिला भी क्या? एक शांत स्वाभाविक मृत्यु भी नहीं! जल-समाधि ली तुमने!! यानी जल में डुबो ही तो दिया खुद को?

क्यों राम, सब कुछ छोड़ते क्यों चले गये – पैतृक अधिकार में मिला राज्य, युद्ध में जीता हुआ राज्य, रावण के चंगुल से मुक्त करायी हुई प्राणप्रिया धर्मपत्नी और आखिर में अपना ‘यशस्वी’ जीवन? जाने तुम किस मिट्टी के बने थे राम! तुम्हें मोह न हुआ।

अच्छा यह बताओ, अब जब तुम्हारे भक्तों ने तुम्हारी जायदाद केस लड़ कर कानूनन हासिल कर ली है तो आओगे वहां विराजने या फिर वही करोगे अपने मन वाली… तुम क्या सोच रहे हो, कैसे जानें हम! हम तो निर्णय लेने की तुम्हारी प्रवृत्ति (और पद्धति) का ध्यान रख कर अटकलबाजी ही कर सकते हैं कि तुम इस बार भी मुंह मोड़ कर चल दोगे कहीं और। तुम्हें तो जनता प्यारी हैं न! जनप्रिय राजा बनने के लिए ही तो धोबी के कहने पर पत्नी को घरनिकाला दिया था? तुम्हारे लिए ‘तुम्हारी जनता’ कौन है राम?

किसके हृदय में बसे रहना चाहते हो, किसके नहीं? बता सको तो बताओ चाहे जैसे भी…

मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित